विशेष लेख

क्या होता जा रहा है भारतीय राजनितिक महिलाओं को, क्यों इतनी क्रूर होती हैं इन्हें किसी को कुछ कहते, करते शर्म भी नहीं आती,
वह माया हों ममता हों या जया !
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माफ़ करिएगा मैम, मैं माओवादी नहीं हूँ: तानिया
रविवार, 20 मई, 2012 को 13:54 IST तक के समाचार

तानिया भारद्वाज के सवाल के बाद मुख्यमंत्री ममता बनर्जी नाराज होकर कार्यक्रम छोड़कर चली गईं
पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के एक निजी टेलीविज़न चैनल कार्यक्रम से नाराज होकर चले जाने के बाद प्रेसिडेंसी विश्वविद्यालय की उस छात्रा तानिया भारद्वाज ने एक खुला पत्र लिखकर उनके रवैये को चुनौती दी है.

भारद्वाज राजनीति शास्त्र की छात्रा हैं और उनका ये पत्र टेलीग्राफ़ अख़बार में छपा है.

दरअसल सीएनएन-आईबीएन चैनल ने ममता बनर्जी के पश्चिम बंगाल में सत्ता में आने के एक साल पूरा होने के मौके पर कोलकाता में एक कार्यक्रम आयोजित किया था जिसमें आम लोग मुख्यमंत्री से सीधे सवाल पूछ सकते थे.

कार्यक्रम में लोगों ने कार्टून मामले पर जादवपुर विश्वविद्यालय के प्रोफेसर अंबिकेश महापात्र की गिरफ्तारी और राज्य में एक बलात्कार पीड़िता पर मंत्रियों की टिप्पणी से जुड़े सवाल पूछे, जिससे मुख्यमंत्री काफी नाराज़ हो गईं.

जब तानिया ने सवाल किया तो क्लिक करें ममता भड़क गईं और उस छात्रा को मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी की छात्र शाखा स्टूडेंट्स फ़ेडेरेशन ऑफ़ इंडिया का सदस्य और माओवादी बता दिया.

इस पर तानिया ने खुला पत्र लिखा जिसका शीर्षक उन्होंने दिया है- 'माफ़ करिएगा मैम मगर मैं माओवादी नहीं हूँ.'

'एक सवाल'

इसमें तानिया ने लिखा है, "आपने, बंगाल के सबसे महत्त्वपूर्ण व्यक्ति ने सीएनएन-आईबीएन के सवाल-जवाब कार्यक्रम में टाउन हॉल में मुझे माओवादी करार दे दिया. मैंने आखिर ऐसा क्या किया था कि मुझे ये तमगा मिला? मैंने आपसे सिर्फ एक सवाल पूछा था."

सवाल
"मैंने आपसे वही पूछा जो मेरे इर्द-गिर्द बैठे ज्यादातर लोग पूछना चाहते थे, वे लोग जिन्होंने परिवर्तन के लिए मतदान किया था. क्या हम अपने नेताओं से यही अपेक्षा रखते हैं."
तानिया भारद्वाज

तानिया ने इस पत्र में लिखा है कि कैसे एक साल पहले भी उन्होंने उसी चैनल के एक कार्यक्रम में हिस्सा लिया था और फिर कुछ दिनों बाद 'परिवर्तन के लिए मतदान' किया.

उन्होंने 28 अप्रैल 2011 को भी टेलीग्राफ अख़बार में एक पत्र लिखा था और इस पत्र में भी तानिया ने उस पत्र का जिक्र किया है. वह लिखती हैं, "मैंने उस समय लिखा था- हम परिवर्तन चाहते हैं मगर डरे हुए हैं कि हम एक तवे की बजाए चूल्हे पर जा बैठेंगे. मुझे आशंकित कह सकते हैं मगर मैं किसी भी राजनीतिक दल को बंगाल के लिए एक सकारात्मक विकल्प के तौर पर नहीं देखती."

तानिया कहती हैं कि 'ये दुखद है मगर एक साल बाद राष्ट्रीय टेलीविजन पर ये साबित हो गया कि वह कितना सही थीं'.

उस कार्यक्रम का संचालन कर रहीं सागरिका घोष ने ममता के शो छोड़कर चले जाने के बाद बीबीसी से बातचीत में बताया था कि जब सवालों से नाराज ममता कार्यक्रम छोड़कर गईं, तो वहाँ कोलकाता पुलिस के स्पेशल ब्रांच के अधिकारी पहुँचे और उन लोगों के बारे में जानकारी मांगी, जो सवाल पूछ रहे थे.

विवादास्पद बयान

ममता ने वहाँ मौजूद लोगों को माओवादी और सीपीएम की छात्र इकाई का सदस्य बता दिया
प्रेसिडेंसी विश्वविद्यालय की छात्रा भारद्वाज ने लिखा है, "मैंने आपसे सिर्फ यही पूछा था कि आपकी पार्टी के मदन मित्रा जैसे प्रभावशाली मंत्री और अरबुल इस्लाम जैसे सांसदों को क्या ज्यादा जिम्मेदारी से बर्ताव नहीं करना चाहिए. कई अन्य लोगों की तरह मैं भी उस बात से असहज हुई थी जब मदन मित्रा ने पुलिस की जाँच पूरी होने से पहले ही एक बलात्कार पीड़िता के मामले पर अपना फैसला सुना दिया था."

मदन मित्रा ने कथित तौर पर उस पीड़िता के बारे में ये कह दिया था कि 'दो बच्चों की एक माँ को नाइट क्लब में जाने की जरूरत ही क्यों पड़ी.'

तानिया ने पत्र में लिखा है, "मैंने आपसे वही पूछा जो मेरे इर्द-गिर्द बैठे ज्यादातर लोग पूछना चाहते थे, वे लोग जिन्होंने परिवर्तन के लिए मतदान किया था. क्या हम अपने नेताओं से यही अपेक्षा रखते हैं. वे लोग जो उदाहरण पेश करते हैं और बाकी लोग उनके पीछे चलते हैं. मैं आपसे सिर्फ यही जानना चाहती थी."

लोकतंत्र
"जैसा कि महज आपके कह भर देने से मैं माओवादी नहीं बन जाउँगी वैसे ही राज्य में भी लोकतंत्र तब तक परिलक्षित नहीं होगा जब तक वह हर क्षेत्र में वास्तविक रूप से लोकतांत्रिक नहीं हो जाता"
तानिया भारद्वाज

तानिया ने लिखा है कि मुख्यमंत्री ने लोकतंत्र की चर्चा की और कार्यक्रम में वो जितनी देर रहीं उन्होंने जवाब देते समय 'आम लोग', 'लोकतंत्र' और 'बंगाल' जैसे शब्दों का जिक्र किया. इसके बाद वह सवाल उठाती हैं, "मगर एक सच्चे लोकतंत्र का एक सबसे अहम पहलू, जैसा मैंने राजनीति शास्त्र के छात्र के तौर पर समझा है, क्या अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता नहीं होता है. इस स्वतंत्रता का मतलब ये है कि व्यक्ति अपनी राय व्यक्त कर सके, सवाल पूछ सके, उसे अधिकारियों के डर में अपनी बात दबे-छिपे रूप में न कहनी पड़े और अहम लोगों के कार्टून पर वह कुछ चुटकी ले सके."

लोकतंत्र

तानिया लिखती हैं, "ये दुखद है कि राज्य में लोकतांत्रिक मशीनरी में काफी विफलता दिखती है. और जैसा कि महज आपके कह भर देने से मैं माओवादी नहीं बन जाउँगी वैसे ही राज्य में भी लोकतंत्र तब तक परिलक्षित नहीं होगा जब तक वह हर क्षेत्र में वास्तविक रूप से लोकतांत्रिक नहीं हो जाता."

तानिया के इस पत्र की सोशल मीडिया वेबसाइटों पर काफ़ी चर्चा हो रही है और मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के रवैये पर भी लोग सवाल उठा रहे हैं.

तानिया ने लिखा है, "आपने कई बार बुद्धिजीवियों के बंगाल छोड़कर जाने का जिक्र किया है. मेरे पास यूनिवर्सिटी कॉलेज लंदन और स्कूल ऑफ ओरियंटल ऐंड अफ्रीकन स्टडीज में विकास और प्रशासन की आगे की पढ़ाई से जुड़े प्रस्ताव आए हैं. शायद अब मैं भी चली जाउँगी और अब आपको वजह पता होगी कि ऐसा क्यों हुआ."

तानिया ने पत्र के अंत में लिखा है- एक साधारण लड़की (तानिया भारद्वाज- प्रेसिडेंसी विश्वविद्यालय, राजनीति शास्त्र).

माफ़ करिएगा मैम, मैं माओवादी नहीं हूँ: तानिया

 रविवार, 20 मई, 2012 को 13:54 IST तक के समाचार
तानिया भारद्वाज
तानिया भारद्वाज के सवाल के बाद मुख्यमंत्री ममता बनर्जी नाराज होकर कार्यक्रम छोड़कर चली गईं
पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के एक निजी टेलीविज़न चैनल कार्यक्रम से नाराज होकर चले जाने के बाद प्रेसिडेंसी विश्वविद्यालय की उस छात्रा तानिया भारद्वाज ने एक खुला पत्र लिखकर उनके रवैये को चुनौती दी है.
भारद्वाज राजनीति शास्त्र की छात्रा हैं और उनका ये पत्र टेलीग्राफ़ अख़बार में छपा है.
दरअसल सीएनएन-आईबीएन चैनल ने ममता बनर्जी के पश्चिम बंगाल में सत्ता में आने के एक साल पूरा होने के मौके पर कोलकाता में एक कार्यक्रम आयोजित किया था जिसमें आम लोग मुख्यमंत्री से सीधे सवाल पूछ सकते थे.
कार्यक्रम में लोगों ने कार्टून मामले पर जादवपुर विश्वविद्यालय के प्रोफेसर अंबिकेश महापात्र की गिरफ्तारी और राज्य में एक बलात्कार पीड़िता पर मंत्रियों की टिप्पणी से जुड़े सवाल पूछे, जिससे मुख्यमंत्री काफी नाराज़ हो गईं.
जब तानिया ने सवाल किया तो क्लिक करेंममता भड़क गईं और उस छात्रा को मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी की छात्र शाखा स्टूडेंट्स फ़ेडेरेशन ऑफ़ इंडिया का सदस्य और माओवादी बता दिया.
इस पर तानिया ने खुला पत्र लिखा जिसका शीर्षक उन्होंने दिया है- 'माफ़ करिएगा मैम मगर मैं माओवादी नहीं हूँ.'

'एक सवाल'

इसमें तानिया ने लिखा है, "आपने, बंगाल के सबसे महत्त्वपूर्ण व्यक्ति ने सीएनएन-आईबीएन के सवाल-जवाब कार्यक्रम में टाउन हॉल में मुझे माओवादी करार दे दिया. मैंने आखिर ऐसा क्या किया था कि मुझे ये तमगा मिला? मैंने आपसे सिर्फ एक सवाल पूछा था."

सवाल

"मैंने आपसे वही पूछा जो मेरे इर्द-गिर्द बैठे ज्यादातर लोग पूछना चाहते थे, वे लोग जिन्होंने परिवर्तन के लिए मतदान किया था. क्या हम अपने नेताओं से यही अपेक्षा रखते हैं."
तानिया भारद्वाज
तानिया ने इस पत्र में लिखा है कि कैसे एक साल पहले भी उन्होंने उसी चैनल के एक कार्यक्रम में हिस्सा लिया था और फिर कुछ दिनों बाद 'परिवर्तन के लिए मतदान' किया.
उन्होंने 28 अप्रैल 2011 को भी टेलीग्राफ अख़बार में एक पत्र लिखा था और इस पत्र में भी तानिया ने उस पत्र का जिक्र किया है. वह लिखती हैं, "मैंने उस समय लिखा था- हम परिवर्तन चाहते हैं मगर डरे हुए हैं कि हम एक तवे की बजाए चूल्हे पर जा बैठेंगे. मुझे आशंकित कह सकते हैं मगर मैं किसी भी राजनीतिक दल को बंगाल के लिए एक सकारात्मक विकल्प के तौर पर नहीं देखती."
तानिया कहती हैं कि 'ये दुखद है मगर एक साल बाद राष्ट्रीय टेलीविजन पर ये साबित हो गया कि वह कितना सही थीं'.
उस कार्यक्रम का संचालन कर रहीं सागरिका घोष ने ममता के शो छोड़कर चले जाने के बाद बीबीसी से बातचीत में बताया था कि जब सवालों से नाराज ममता कार्यक्रम छोड़कर गईं, तो वहाँ कोलकाता पुलिस के स्पेशल ब्रांच के अधिकारी पहुँचे और उन लोगों के बारे में जानकारी मांगी, जो सवाल पूछ रहे थे.

विवादास्पद बयान

ममता बनर्जी
ममता ने वहाँ मौजूद लोगों को माओवादी और सीपीएम की छात्र इकाई का सदस्य बता दिया
प्रेसिडेंसी विश्वविद्यालय की छात्रा भारद्वाज ने लिखा है, "मैंने आपसे सिर्फ यही पूछा था कि आपकी पार्टी के मदन मित्रा जैसे प्रभावशाली मंत्री और अरबुल इस्लाम जैसे सांसदों को क्या ज्यादा जिम्मेदारी से बर्ताव नहीं करना चाहिए. कई अन्य लोगों की तरह मैं भी उस बात से असहज हुई थी जब मदन मित्रा ने पुलिस की जाँच पूरी होने से पहले ही एक बलात्कार पीड़िता के मामले पर अपना फैसला सुना दिया था."
मदन मित्रा ने कथित तौर पर उस पीड़िता के बारे में ये कह दिया था कि 'दो बच्चों की एक माँ को नाइट क्लब में जाने की जरूरत ही क्यों पड़ी.'
तानिया ने पत्र में लिखा है, "मैंने आपसे वही पूछा जो मेरे इर्द-गिर्द बैठे ज्यादातर लोग पूछना चाहते थे, वे लोग जिन्होंने परिवर्तन के लिए मतदान किया था. क्या हम अपने नेताओं से यही अपेक्षा रखते हैं. वे लोग जो उदाहरण पेश करते हैं और बाकी लोग उनके पीछे चलते हैं. मैं आपसे सिर्फ यही जानना चाहती थी."

लोकतंत्र

"जैसा कि महज आपके कह भर देने से मैं माओवादी नहीं बन जाउँगी वैसे ही राज्य में भी लोकतंत्र तब तक परिलक्षित नहीं होगा जब तक वह हर क्षेत्र में वास्तविक रूप से लोकतांत्रिक नहीं हो जाता"
तानिया भारद्वाज
तानिया ने लिखा है कि मुख्यमंत्री ने लोकतंत्र की चर्चा की और कार्यक्रम में वो जितनी देर रहीं उन्होंने जवाब देते समय 'आम लोग', 'लोकतंत्र' और 'बंगाल' जैसे शब्दों का जिक्र किया. इसके बाद वह सवाल उठाती हैं, "मगर एक सच्चे लोकतंत्र का एक सबसे अहम पहलू, जैसा मैंने राजनीति शास्त्र के छात्र के तौर पर समझा है, क्या अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता नहीं होता है. इस स्वतंत्रता का मतलब ये है कि व्यक्ति अपनी राय व्यक्त कर सके, सवाल पूछ सके, उसे अधिकारियों के डर में अपनी बात दबे-छिपे रूप में न कहनी पड़े और अहम लोगों के कार्टून पर वह कुछ चुटकी ले सके."

लोकतंत्र

तानिया लिखती हैं, "ये दुखद है कि राज्य में लोकतांत्रिक मशीनरी में काफी विफलता दिखती है. और जैसा कि महज आपके कह भर देने से मैं माओवादी नहीं बन जाउँगी वैसे ही राज्य में भी लोकतंत्र तब तक परिलक्षित नहीं होगा जब तक वह हर क्षेत्र में वास्तविक रूप से लोकतांत्रिक नहीं हो जाता."
तानिया के इस पत्र की सोशल मीडिया वेबसाइटों पर काफ़ी चर्चा हो रही है और मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के रवैये पर भी लोग सवाल उठा रहे हैं.
तानिया ने लिखा है, "आपने कई बार बुद्धिजीवियों के बंगाल छोड़कर जाने का जिक्र किया है. मेरे पास यूनिवर्सिटी कॉलेज लंदन और स्कूल ऑफ ओरियंटल ऐंड अफ्रीकन स्टडीज में विकास और प्रशासन की आगे की पढ़ाई से जुड़े प्रस्ताव आए हैं. शायद अब मैं भी चली जाउँगी और अब आपको वजह पता होगी कि ऐसा क्यों हुआ."
तानिया ने पत्र के अंत में लिखा है- एक साधारण लड़की (तानिया भारद्वाज- प्रेसिडेंसी विश्वविद्यालय, राजनीति शास्त्र).

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दो सौ रूपये का पेंशन वृद्धों का अपमान: जयराम रमेश

 सोमवार, 21 मई, 2012 को 01:39 IST तक के समाचार

जयराम रमेश पेंशन की रकम बढ़ाने के पक्ष में हैं
ग्रामीण विकास मंत्री जयराम रमेश ने कहा है कि वृद्ध लोगों को मिलने वाला 200 रूपये का मासिक पेंशन उनका अपमान करने के बराबर है.
समाचार एजेंसी पीटीआई के मुताबिक प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को एक पत्र लिखकर जयराम रमेश ने वृद्ध लोगों को मिलने वाली पेंशन को बेहतर करने की सिफारिश की है.
ये पेंशन इंदिरा गांधी राष्ट्रीय वृद्धावस्था पेंशन स्कीम के तहत दी जाती है.
16 मई को लिखे गए इस पत्र में रमेश ने कहा, "मैं हमेशा से ये मानता आया हूं कि हम पेंशन की जो राशि दे रहे हैं वो किसी व्यक्ति की गरिमा के खिलाफ है."
जयराम रमेश ने ये मुद्दा पेंशन परिषद के संयोजक बाबा आधव और अरूणा रॉय के साथ हुई बैठक के बाद उठाया है.
"मैं पेंशन परिषद की गरीबी रेखा के नीचे वाले नियम को हटाने का समर्थन करता हूं. साथ ही पेशन पाने वालों को रकम समय पर मिले ये भी जरूरी है."
जयराम रमेश, ग्रामीण विकास मंत्री
पेंशन परिषद की मांग है कि पेंशन की राशि को 200 रूपये से बढ़ाया जाए, इसे लागू करने के लिए गरीबी रेखा के नियम को हटाया जाए और इसकी उम्र सीमा 60 से घटाकर पुरुषों के लिए 55 वर्ष और महिलाओं के लिए 50 वर्ष किया जाए.

समर्थन

रमेश ने चिट्ठी में लिखा, "मैं पेंशन परिषद की गरीबी रेखा के नीचे वाले नियम को हटाने का समर्थन करता हूं. साथ ही पेशन पाने वालों को रकम समय पर मिले ये भी जरूरी है. अभी उन्हें कुछ अंतराल के बाद इकठ्ठा हुई रकम मिलती है लेकिन होना ये चाहिए की पेंशन हर महीने एक निश्चित तारीख को बैंक अकाउंट में डाला जाएं."
इस संबंध में ग्रामीण विकास मंत्रालय ने वित्त मंत्रालय को एक प्रस्ताव पहले ही दिया है.
हालांकि पेंशन के लिए उम्र घटाने की बात का जयराम रमेश ने समर्थन नहीं किया है.

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एक नर्स जो बनी आईएएस...

 सोमवार, 21 मई, 2012 को 04:26 IST तक के समाचार

आईएएस परीक्षा पास करने वाली पहली नर्स हैं एनीज़
केरल के एक गांव के किसान ने सपना देखा. सपना ये कि उसकी बेटी आईएएस बने. इसी सपने के साथ उसने अपनी बेटिंयों को बेहतरीन शिक्षा दी और इस साल उस किसान के सपने को उसकी बेटी ने सच कर दिखाया.
जिस लड़की ने अपने पिता के सपने को सच किया वो हैं एनीज़ कनमणि जॉय जो कि सिविल सेवा परीक्षा 2012 पास करने में कामयाब रही हैं.
एनीज़ कनमणि जॉय ने ना सिर्फ 2012 में परीक्षा पास की बल्कि 65वां रैंक भी हासिल किया है.
ऐसा नहीं हैं कि एनीज़ ने ये पहली बार किया हैं. 2011 में भी एनीज़ ने सिविल सेवा पास की थी. तब उनका रैंक 580 था. उसी के आधार पर एनीज़ फिलहाल भारतीय अकांउट सेवा के तहत ऑफिसर ट्रेनिंग ले रही हैं.
"जब मैंने तैयारी शुरु की तो मैंने सोचा कि किसी आईएस नर्स से सलाह लेनी चाहिए, लेकिन मैं ऐसी किसी नर्स को नहीं ढूंढ पाई. हालांकि मुझे इस बारे में पक्का पता इमतिहान पास कर लेने के बाद ही चला."
एनीज़ कनमणि जॉय
आईएएस बनने की प्रेरणा कैसे मिली इस सवाल के जवाब ने एनीज़ कहती हैं, “बचपन से ही पिताजी ने सपना दिखाया था, लेकिन मैंने बचपन से इसकी तैयारी नहीं की थी. वो तो इंटर्नशिप के बाद मैंने इस इम्तिहान की तैयारी की.”
एनीज़ पहली नर्स हैं जो सिविल सेवा परीक्षा पास करने में कामयाब रही हैं. क्या उन्हें पता था कि अगर ये परीक्षा पास कर लेती हैं तो ऐसा करने वाली वो पहली महिला होंगी, इस सवाल के जवाब में एनीज़ कहती हैं, “जब मैंने तैयारी शुरु की तो मैंने सोचा कि किसी आईएएस नर्स से सलाह लेनी चाहिए, लेकिन मैं ऐसी किसी नर्स को नहीं ढूंढ पाई. हालांकि मुझे इस बारे में पक्का पता इम्तिहान पास कर लेने के बाद ही चला. ”
"ग्रामीण पृष्ठभूमि खास माइने नहीं रखती. माइने रखती हैं कि आप में कितना दम है वैसे भी मैं केरल से आती हूं जहां पढ़ाई को बहुत माना जाता हैं. ये आपके लिए बड़ी बात होगी कि एक गांव की लड़की ने इतना बड़ा काम किया,मुझे तो सबकुछ साधारण लगता है"
एनीज़ कनमणि जॉय
तो उनके पिता ने इस खबर पर क्या कहा, इस सवाल के जवाब में एनीज़ कहती हैं, “जब मैंने पिताजी को फोन पर बताया तो वो कुछ बोल ही नहीं पाए. हालांकि मैं उनकी खुशी समझ सकती हूं.”
एनीज़ इस इम्तिहान के पास करने के बाद अपने परिवार से मिलने केरल नहीं जा पाई हैं.
ग्रामीण पृष्ठभूमि होने के सवाल पर एनीज़ कहती हैं, “ग्रामीण पृष्ठभूमि खास मायने नहीं रखती. मायने रखती हैं कि आप में कितना दम है वैसे भी मैं केरल से आती हूं जहां पढ़ाई को बहुत माना जाता हैं. ये आपके लिए बड़ी बात होगी कि एक गांव की लड़की ने इतना बड़ा काम किया,मुझे तो सबकुछ साधारण लगता है.”
एनीज़ एक खास बात बताना नहीं भूली, “मेरे पिताजी मानते हैं कि पढ़ाई ही वो असल धन हैं जो हम अपनी बेटी को दे सकते हैं, भले ही हम किसान परिवार से हैं लेकिन उन्होने मुझे बेहतरीन शिक्षा दिलवाई है. हमारे केरल में एक चलन और हैं कि हमारे यहां हर मां-बाप बच्चों के स्कूल ज़रुर भेजते हैं.”
एनीज़ स्वीकार करती हैं कि उन्होने पिछले दो साल में नौ-नौ घंटो पढ़ाई की हैं. जब उनसे पूछा गया कि क्या आपको लगता हैं कि आपने पिछले दो साल में कुछ मिस किया हैं तो एनीज़ ने कहा कि मैने हो सकता हैं कि कुछ सामजिक त्योहार या मुलाकात ना कि हो लेकिन ऐसा कुछ खास मिस नहीं किया.
वो हिन्दी की कहावत का हवाला देते हुए कहती हैं “कुछ पाने के लिए कुछ खोना पड़ता है.”

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लंगड़ाता पूंजीवाद, लड़खड़ाती दुनिया

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मेरे एक मित्र टेलीविजन की दुनिया में रुतबेदार पद पर आसीन हैं। पिछले दिनों वह लास वेगास गए थे। बड़े खुश लौटे। बोले- पहली बार वेगास में एक गोरे को हिन्दुस्तानी भिखमंगों की तर्ज पर भीख मांगते देखा। और तो और, इस बार कैसीनो सिटी के कमरों के भाड़े में बेहद कमी देखने को मिली।उनका मानना है कि अमेरिकी अब उन्हीं हालात के शिकार हो रहे हैं, जिसके रचयिता वे स्वयं हैं। वह सौ फीसदी सही हैं।
धरती का स्वर्ग अमेरिका खुद नरक की लपटों से घिरता जा रहा है। सरकार की समूची कोशिशों के बाद ‘ऑक्यूपाई वॉलस्ट्रीट’ आंदोलन ठंडा नहीं पड़ रहा है। हर तरफ मौजूदा व्यवस्था के विरुद्ध आवाजें बुलंद हो रही हैं। इन आंदोलनकारियों को समर्थन देनेवाले वे लोग हैं, जो खुद को संसार के सबसे अमीर मुल्क में 99 फीसदी मानते हैं। उनका कहना है कि सिर्फ एक फीसदी लोगों ने समूची सत्ता, संपदा और वैभव पर कब्जा कर रखा है। आंकड़े इस आरोप को सच साबित करते हैं।
संयुक्त राज्य अमेरिका में 14.5 फीसदी लोग ‘खाद्य असुरक्षा’ के शिकार हैं। खाद्य असुरक्षा का मतलब है कि इन लोगों को भरपेट भोजन सामग्री खरीदने में हर रोज हाथ की तंगी का सामना करना पड़ता है। लगभग पांच करोड़ लोगों के पास स्वास्थ्य बीमा नहीं है। अमेरिका का कोई भी नागरिक बिना इस बीमा के निरोग जीवन की कल्पना तक नहीं कर सकता। इन लोगों को जरा-सी बीमारी भी कंपकंपा जाती है। यही नहीं, कम-से-कम चार करोड़ 20 लाख लोग गरीबी की रेखा के नीचे जिंदगी बसर कर रहे हैं। यह संख्या संयुक्त राज्य की कुल जनसंख्या का सातवां हिस्सा है।
जो लोग सिटी बैंक के सीईओ विक्रम पंडित के लगभग सवा दो करोड़ डॉलर के पैकेज से ईर्ष्या महसूस करते हैं, उन्हें जानकर हैरानी होगी कि विक्रम जैसे लोग अमेरिका में बहुत कम हैं। इसीलिए जब सिटी बैंक के निवेशक मंडल ने उनके वेतन-भत्तों में आश्चर्यजनक बढ़ोतरी पर उंगली उठाई, तो उस आपत्ति को खासो-आम का खुला समर्थन हासिल हुआ। आपको आश्चर्य होगा कि 1970 के बाद आला कॉरपोरेट अधिकारियों के वेतन में कई गुना बढ़ोतरी हुई है, परंतु वे नौकरी-पेशा लोग, जो निचली जमात में आते हैं, उनके वेतन-भत्ते दस प्रतिशत कम हो गए हैं। क्या कमाल है! इन चार दशकों में महंगाई कहां से कहां पहुंच गई और पगार का औसत कम हो गया।
और तो और, ऊपरी जमात में बैठे 20 फीसदी लोगों का अमेरिकी जायदाद के 85 प्रतिशत हिस्से पर कब्जा है। यही वजह है कि पूंजीवाद के पांव लड़खड़ाने लगे हैं और सामाजिक संतुलन की नई मांग जोर पकड़ रही है। वहां के धनी-मानी भी जानते हैं कि यह हाल हमेशा नहीं रह सकता। आज नहीं तो कल ‘ऑक्यूपाई वॉलस्ट्रीट’ जैसे आंदोलन और असरकारी साबित होंगे। यह स्थिति उन्हें सांसत में डाल देगी और अराजकता के हवाले हो जाने से अच्छा है कि संसाधनों के बेहतर इस्तेमाल पर जोर दिया जाए। पर यह हो कैसे?
अमेरिका की बदहाली की समूची दुनिया हिस्सेदार है। फ्रांस में निकोलस सरकोजी दो साल पहले तक कितने लोकप्रिय हुआ करते थे? आज वह सत्ताबदर हो चुके हैं। सोशलिस्ट पार्टी के फ्रांस्वा ओलांद के पास अब सत्ता सदन में संपूर्ण अधिकार है। पर जीत के साथ ही बदहाल होते मुल्क के लोगों ने उनकी कुव्वत को चुनौती देते सवाल खड़े करने शुरू कर दिए हैं। सामाजिक और आर्थिक तौर पर लड़खड़ाते फ्रांस का वह क्या भला कर पाएंगे?
याद करें। ग्रीस की लड़खड़ाहट के साथ ही यूरोप के भविष्य पर प्रश्नचिह्न् लग गया था। इस ऐतिहासिक देश के लोग जिस यातना को भुगत रहे हैं, वह डराती है। अगर यूरो का पतन हुआ, तो इससे फर्क नहीं पड़ता कि डॉलर मजबूत होगा या येन, पर यह सच है कि सामाजिक और सांस्कृतिक पुनर्रचना की एक नेक कोशिश अकाल मौत की शिकार हो जाएगी। यूरोप ऐतिहासिक तौर पर अंतर्विरोधों का शिकार रहा है। बर्लिन की दीवार के ढहने के साथ 1989 में इस महाद्वीप के रचनात्मक लोगों ने एक सपना देखा था कि वे विभाजित संस्कृति और विचारों के ऐतिहासिक कलंक से मुक्ति पा लेंगे। यदि यूरो दफन होता है, तो उनका यह नेकनीयत ख्वाब भी जमींदोज हो जाएगा।
ऐसा नहीं है कि सिर्फ पूंजीवादी देशों में ऐसा हो रहा है। हम चीन की बात कर सकते हैं। सब जानते हैं कि 2010 में समूची दुनिया के आर्थिक विकास में इस महादेश ने 19 फीसदी का योगदान अकेले किया था। इसमें इस साल सिर्फ छह प्रतिशत की बढ़ोतरी की उम्मीद है। 1976 में सांस्कृतिक क्रांति के बाद ड्रैगन ने जो हुंकार भरी, उसके पीछे वहां की ताकतवर श्रमिक आबादी है। चीन से सस्ता और कुशल श्रम समूची दुनिया में उपलब्ध नहीं है, इसीलिए वहां पश्चिम के बहुराष्ट्रीय दानवों ने फैक्टरियों की शक्ल में अपने डैने फैलाने में देर नहीं लगाई। जिस श्रम-शक्ति के बूते पर चीन दुनिया पर राज करने के ख्वाब देख रहा है, खुद उसकी हालत भी बेहद खस्ता है। 1949 में जब चीन में वामपंथी शासन शुरू हुआ था, तो वहां औसत आयु 35 वर्ष थी। 1970 में यह 68 वर्ष तक पहुंच गई थी। पर इस गफलत में मत रहिएगा कि सांस्कृतिक क्रांति के बाद हुए विकास ने चीन के आम आदमी की जिंदगी में बढ़ोतरी कर दी है। 1980 से 1998 के बीच में यह सिर्फ दो साल बढ़ सकी है, जो संसार भर के औसत से कम है। वाम देशों की लड़खड़ाहट तभी दीखती है, जब वे गिरने को होते हैं। पिछली सदी के आखिरी दशक की शुरुआत तक किसी को अंदाज नहीं था कि सोवियत संघ की शक्ति को दीमक चाट गया है। चीन की बदहाली कहीं फिर से उस भूली हुई कहानी को तो नहीं दोहराने जा रही?
खुद अपने देश का हाल बदहाल है। विदेशी निवेश लड़खड़ा रहा है। औद्योगिक विकास कम हो गया है। विकास दर लक्ष्य से पीछे चल रही है। घरेलू मांग में घटोतरी जारी है। अंतरराष्ट्रीय रेटिंग संस्था स्टैंडर्ड ऐंड पुअर्स को लगता है कि सरकार में इससे निपटने की पर्याप्त क्षमता नहीं है। यह वही स्टैंडर्ड ऐंड पुअर्स है, जिसने पिछले साल अमेरिका की रेटिंग घटा दी थी और समूची दुनिया थर्रा उठी थी। भारत के कॉरपोरेट दिग्गज अभी तक 2008 की मंदी से हकबकाए हुए थे, अब उन्हें अगली आपदा हर रोज करीब आती महसूस हो रही है। नई दिल्ली से वाशिंगटन डीसी बरास्ता बीजिंग हर ओर हाल-बेहाल नजर आ रहा है। द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद तेजी से पनपे शीतयुद्ध का समापन 1991 में सोवियत संघ के बिखराव से हुआ था। तब माना गया था कि मार्क्सवाद में दूर तक दौड़ने की क्षमता नहीं है। संघ के सदस्य देशों में फैली बदहाली को लोगों ने आर्थिक समता के सिद्धांत का औपचारिक अंतिम संस्कार मान लिया था। हर जगह अमेरिका और उसके दोस्त देशों का गुणगान चरम पर था। भारत जैसे देश, जो तीसरी दुनिया के नाम पर संतुलन बनाकर चल रहे थे, उन्हें बैक गियर में दौड़ने पर मजबूर होना पड़ा था। पर 2008 की मंदी ने पूंजीवाद के नकाब को नोचकर फेंक दिया है। तब से अब तक कुछ लोगों की करतूतों की सजा समूची धरती भोग रही है। शीतयुद्ध तो दशकों चला, पर अकेला पूंजीवाद दो दशक में ही लंगड़ाने लगा।
इसीलिए सवाल उठ रहे हैं। अब अगर फिर से मंदी आती है, तो पूंजीवाद के पैरोकार क्या जवाब देंगे? क्या इस दुनिया को एक नए निजाम की जरूरत है?
( विशेष लेख -हिंदुस्तान के ब्लॉग से उद्ध्रित )

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भाजपा के टोल आर्मी के प्रमुख पर 

जिस तरह का एक्शन कांग्रेस द्वारा लिया गया है निश्चित रूप से यह वक्त की सख्त जरूरत है अन्यथा यह अपनी कुत्सित मानसिकता से बाज नहीं आएंगे।
कांग्रेस नेता जयराम रमेश की शिकायत के बाद बुधवार को भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) आईटी सेल के प्रमुख अमित मालवीय पर कांग्रेस नेता राहुल गांधी के खिलाफ ट्वीट करने के लिए मामला दर्ज किया गया। मालवीय के खिलाफ बेंगलुरु में आईपीसी की धारा 153ए 120बी 505(2), 34 के तहत एफआईआर दर्ज की गई थी। मालवीय ने एक वीडियो पोस्ट किया और कैप्शन में कहा, "राहुल गांधी खतरनाक हैं और एक कपटी खेल खेल रहे हैं..."
कांग्रेस महासचिव जयराम रमेश ने सोमवार को एक ट्वीट में कहा था, ''कांग्रेस और राहुल गांधी पर अपने ताजा हमले से बीजेपी आईटी सेल हताशा और बेईमानी की नई गहराइयों में डूब गया है.''
"कांग्रेस ने इसमें शामिल सभी व्यक्तियों के खिलाफ आपराधिक शिकायत दर्ज की है और इस पर कानून की पूरी सीमा तक कार्रवाई की जाएगी। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि वे (भाजपा नेता) खुद को कितना ऊंचा या "शक्तिशाली" मानते हैं, हम यह सुनिश्चित करेंगे कि वे रमेश ने कहा, ''वे जो झूठ फैलाते हैं उसके लिए उन्हें जिम्मेदार ठहराया जाता है।''
उनकी टिप्पणी कर्नाटक कांग्रेस द्वारा सोमवार को कांग्रेस नेताओं के खिलाफ अपमानजनक पोस्ट प्रकाशित करने के संबंध में बेंगलुरु में हाई ग्राउंड्स पुलिस में भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जे.पी.नड्डा और पार्टी के आईटी सेल प्रमुख अमित मालवीय के खिलाफ शिकायत दर्ज कराने के बाद आई है।
राहुल गांधी का एनिमेटेड वीडियो जारी करने को लेकर कर्नाटक के ग्रामीण विकास और पंचायती राज मंत्री प्रियांक खड़गे और केपीसीसी प्रवक्ता रमेश बाबू ने शिकायत दर्ज कराई है। चंडीगढ़ बीजेपी अध्यक्ष अरुण सूद के खिलाफ भी शिकायत दर्ज कराई गई है.
मालवीय ने 17 जून को अपने ऑफिशियल सोशल मीडिया अकाउंट से एक एनिमेटेड वीडियो पोस्ट किया था.
संबंधित वीडियो: बीजेपी की मालविका अविनाश ने राहुल गांधी का 'मजाक' उड़ाने के लिए अमित मालवीय के खिलाफ एफआईआर पर कांग्रेस की आलोचना की (टाइम्स नाउ)
 - डॉ लाल रत्नाकर
















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