मंगलवार, 4 मार्च 2025

अखंड पाखंडी चमत्कारी और अंधविश्वासी होना बहुजन राजनीति का विनाश का रास्ता है।

अखंड होना
पाखंडी चमत्कारी 
अंधविश्वासी। 

कैसा धर्म है 
जिसमें अधर्म है
आचरण में। 

प्रतीक होना
लक्षण है ठगना
बरगलाना।

आमजन को 
पशु सा व्यवहार 
मानवता से। 

समझ आता 
सामान्य तौर पर 
आमजन को। 

डॉ. लाल रत्नाकर




 www.samajvadi.blogspot.com
अखंड पाखंडी चमत्कारी और अंधविश्वासी होना
बहुजन राजनीति का विनाश का रास्ता है। 
डॉ. लाल रत्नाकर 
आने वाले समय में भारतीय राजनीति और राजनीति करने वाले बिल्कुल भटक गए हैं। यह कहना बिल्कुल साफ है और इस पर भरोसा न करने की कोई गुंजाइश नहीं है। इसलिए हमें निम्नलिखित बिंदुओं पर विचार करने की जरूरत है। 
विचारधारा :
लोकतंत्र: 
परिवारवाद; 
जनांदोलन:
सामाजिक न्याय: 
धर्म की राजनीति: 
युवा का सांप्रदायिक होना:
बहुजन समाज का बिखराव: 
बहुजन राजनेताओं का 
भ्रष्टाचार: 
भय का माहौल:
राजनीति में गुंडागर्दी: 
संविधान न मानने वालों का आधिपत्य: 
लोकतंत्र में डकैती: 
बिके हुए लोकतंत्र के चारों खंबे: 
विकल्प की तलाश: 
संभावित विकल्प:



विचारधारा :
के सवाल पर देखा जाए तो देश के सभी दल विचलित हुए हैं या उनकी असलियत सामने आ गई है। 
बहुत सारे लोगों का मानना है कि भारतीय जनता पार्टी विचारधारा के मामले पर आगे बढ़ रही है मेरा मानना इससे अलग है जो सच्चाई है वह यह है कि जिन तत्वों की इस लेख में चर्चा की जानी है उनके लिए सबसे ज्यादा जिम्मेदार अगर कोई दल है तो वह भारतीय जनता पार्टी है।
भारतीय राजनीति में भारतीय जनता पार्टी में जिन मूल्यों को खत्म किया है वह उसकी अपनी नाकामी कही जाएगी इतिहास कभी भी किसी को भी माफ नहीं करता क्योंकि यहां पर इसी तरह का साम्राज्य मुगलों का और अंग्रेजों का रहा होगा जहां पर सत्ता की बागडोर के लिए ईमानदारी जरूर रही होगी जिससे जनता को उस राज्य से परेशानी ना हो।
मौजूदा दौर में राजनीति में बयान बाजी और ईमानदारी का कोई संबंध नहीं है झूठ का साम्राज्य चल रहा है अविश्वास और धोखाधड़ी का सबसे बड़ा हथियार राजनीति में इस काल में जिस तरह से देखने को मिला है इससे पहले कभी इस तरह के संवैधानिक कार्य नजर नहीं आते थे।

 

गुरुवार, 27 फ़रवरी 2025

अखंड पाखंड और अंधविश्वास से राजनीतिक लड़ाई नहीं लड़ी जा सकती क्योंकि यह उनके हथियार है जो असत्य को सत्य साबित करते हैं

मन रहे चंगा, 
कठौती में बहे गंगा 
- संत रविदास 

के इस विचार को युगों युगों से मानते हुए मानवतावादी विचारकों को ब्राह्मणवादी पाखंड, अंधविश्वास और चमत्कार कभी भी रास नहीं आया। जिसमें इन पाखंडियों द्वारा बहुजन समाज को फंसा कर लंबे समय से उनपर सांस्कृतिक साम्राज्यवाद का कवच डालकर राज्य करते आ रहे हैं। 

यहां पर जिस आलेख को इस व्यक्ति के लिए लिखा गया है वह 100% सही साबित होता है।

-डॉ लाल रत्नाकर 

"I.P. Singh @IPSinghSp

आज राहुल गांधीजी उनकी बहन प्रियंका बाड्रा ने साबित कर दिया कि वे सनातन धर्म परंपरा और संस्कृति के घोर विरोधी हैं।

कुंभ स्नान सनातन काल से चला आ रहा है इस बार का आयोजन BJP ने किया तो 2012-13 का आयोजन सपा ने किया था।

सोनिया गांधीजी ईसाई धर्म से हैं और प्रियंका बाड्रा ने ईसाई धर्म में विवाह किया है।

अगर वे स्नान नहीं करती हैं अपने ईसाई धर्म का पालन करती हैं तो सवाल नहीं उठेंगे पर राहुल गांधी जी समय समय पर अपने को हिन्दू बताते हैं।

आज महाशिवरात्रि पर्व का अंतिम स्नान था वे रायबरेली आये पर कुंभ स्नान करने नहीं गये चाहते तो रायबरेली में गंगा जी बहती हैं वहाँ भी स्नान कर सकते थे पर उन्हें हिन्दू धर्म से चिढ़ है यह उन्होंने आज साबित कर दिया।

@RahulGandhi

 26/02/25; 8:42 PM

आईपी सिंह की इसी पोस्ट पर वीरेंद्र दहिया की टिप्पणी इस प्रकार है जिसे ठीक से पढ़ा जाना चाहिए-अ

हीर एस के यादव द्वारा इस पोस्ट को अपनी पोस्ट पर लगाया गया है -

"Samajwadi Party  प्रमुख Akhilesh Yadav  जी इस संघी आई पी सिंह से जल्दी पीछा छुड़ा लीजिए.. नहीं तो यह आदमी आपकी तथा कथित PDA की विचारधारा में भूसा भर देगा..

वैज्ञानिक चेतना ही सामाजिक न्याय की बुनियाद है डॉ आंबेडकर स्पष्ट थे कि जो यह मानता है कि स्नान करने से पाप मुक्ति मिलती है, सभी कर्मों का कर्ता ईश्वर है, और जाति  श्रेष्ठता का बोध रखता हो वह समाज को दिशा नहीं दे सकता..

यह बीजेपी का स्लीपर सेल संघी समाजवादी आई पी सिंह लगातार Rahul Gandhi जी और Priyanka Gandhi Vadra के बारे में अनर्गल बातें लिखता रहता है 

यह संघी मानसिक रूप से विकृत है समाजवादी पार्टी में प्लांट किया गया है 

आप मनुवादी मानसिकता के खुद ही प्रताड़ित व्यक्ति हैं आपके घर को गंगाजल से धोया गया था आपको आला दर्जे का हिन्दू कभी नहीं माना जाएगा इस तथाकथित सनातनी व्यवस्था में आप दोयम दर्जे के हिंदू है 

आपको इस पर कार्यवाही करनी चाहिए अगर आप कार्रवाई नहीं करते हैं तो माना जाएगा कि आपकी शह पर ही हो रहा..

-Mr Virender Dahiya"

श्री अखिलेश यादव जी 

मिस्टर वीरेंद्र दहिया की पोस्ट से यह साबित हो रहा है कि वह आपके सच्चे हितैषी हैं, इन पर विश्वास किया जाना चाहिए और उनके विचारों पर गंभीरता से मंथन करना चाहिए। 

इस समय जो लड़ाई लड़ी जा रही है उसका मुख्य हथियार है सांस्कृतिक साम्राज्यवाद उसी सांस्कृतिक साम्राज्यवाद की नकल करके हम इस लड़ाई को परास्त नहीं कर सकते उल्टे इसे मजबूत ही करेंगे।

मेरी निजी बातचीत में आपने संस्कृति के कुछ महत्वपूर्ण अंगों से लगाव रखते हैं यहां तक तो बात समझ में आती है मैंने उसी समय भी कहा था कि इसमें कोई बुराई नहीं है कि कबीर, मीरा, संत तुकाराम, संत रविदास आदि के भजन मानवतावादी भजन है इन्हें सुना ही नहीं जाना चाहिए जोर-जोर से बजाय जाना चाहिए जिससे तमाम पीडीए के लोगों के कानों तक पाखंड अंधविश्वास और चमत्कार के खिलाफ मजबूत आवाज पहुंचाई जा सके, इस काम के लिए आप एक संस्था खड़ी कर सकते हैं जो सांस्कृतिक साम्राज्यवाद के खिलाफ सांस्कृतिक समाजवाद की अवधारणा पर काम करे।

लेकिन लंबे समय से यह देखने में आ रहा है कि आपके इर्द गिर्द अखंड पाखंड अंधविश्वास और चमत्कार के चाहने वाले विराजमान रहते हैं। जिन्हें यह बात ही समझ में नहीं आती कि भारतीय राजनीति किस दिशा में जा रही है। या वह लोग जो राजनीति की जा रही है उसके समर्थक बनाए रखने के लिए आपके करीब लगा दिए गए हैं।

यदि उस दिशा में कोई ठीक से लड़ रहा है तो वह नाम है श्री राहुल गांधी जी का जहां तक मुझे लगता है राहुल गांधी के मन में आपके प्रति बहुत अच्छा स्थान है, सम्मान है और विश्वास है, ऐसा कई बार दिखाई दिया है जिन लोगों को यह स्थान पसंद नहीं है वह निरंतर राहुल गांधी से आपकी दूरी बढ़ाने के लिए काम कर रहे हैं। ऐसा भी लगता है कि उसे दूरी को बधाई रखने में उनके स्सपान्सरों ने उन्हें यहां लगा रखा है।

यह समय कांग्रेस और सपा के बड़ा होने का नहीं है बल्कि भाजपा को खत्म करने का है, यह आईपी सिंह जो अपने को पूर्व भाजपाई बताता है और काफी आंतरिक आत्मविश्वास के साथ उस व्यक्ति के मन में भाजपाई होना समाया हुआ है (यहां भाजपाई होना व्याख्याित किया जाना चाहिए इसलिए की इस समय भाजपा ही एक ऐसी पार्टी है जो सवर्णो के हित को अच्छी तरह से पूरा करने में लगी हुई है इसलिए वह हर सवर्ण जो जातिवादी है वर्णवादी है मनुवादी है वह कहीं भी हो अपने हित की चिंता सर्वोपरि रखता है । मुझे कहीं भी एक ऐसा व्यक्ति नहीं दिखाई दिया जो इस विचार से अलग हो भले ही वह सपा में हो बसपा में हो या कांग्रेस में वह वहां रहते हुए भाजपा के उत्थान पर हमेशा सजग रहता है) अब चाहे राहुल गांधी जी हों आप हों श्री तेजस्वी यादव जी या बहुजन समाज पार्टी की बहन मायावती जी हों। आप लोगों के इर्द-गिर्द ऐसेलगों का जबरदस्त जमावड़ा है।

आपके पास ऐसे लोगों की टीम क्यों नहीं है जो किसी सदन में जाने की बजाय वैचारिक रूप से सामाजिक कार्य को अंजाम दे सकें, प्रोफेसर कांचा एलैइया शेफर्ड को पढ़ते समय इस बात की अनुभूति होती है कि कितना व्यवस्थित तरीके से बहुजन समाज के लोगों को लिखने पढ़ने से आज तक वंचित किया गया है यदि ई वी रामास्वामी पेरियार और बाबा साहब डॉक्टर भीमराव अंबेडकर को छोड़ दिया जाए तो अनेक संतों ने भी इस पर काम किया है जिन्होंने पूरे समाज को यह समझाने का प्रयास किया है कि अखंड पाखंड और अंधविश्वास को फैलाने वाला मनुवादी समाज कभी भी बहुजन समाज का हित नहीं चाहेगा।कांग्रेस और भाजपा के प्रशंसक आईपी सिंह की नफरत का मूल कारण है कि राहुल गांधी जी हमेशा संघ और मनुस्मृति के खिलाफ बोलते हैं और वह मानते हैं कि यह दो संस्थाएं जिनका विचार देश को खंड-खंड करके ब्राह्मणवाद का पुनरुत्थान करने में लगा हुआ है। इसके आसपास के रास्ते पर चलने वाला हर व्यक्ति उसी ब्राह्मणवाद को मजबूत करता नजर आता है जो आमतौर पर महाकुंभ महाशिवरात्रि या इसी प्रकार के अन्य धार्मिक उत्सवों पर दिखाई देता है जिसे आम जनता को बेवकूफ बनाने के लिए आयोजित और प्रचारित किया जाता है। 

इसका बहुत सुंदर उदाहरण अयोध्या और प्रयागराज को धार्मिक धंधे के रूप में बड़ा-चढ़कर दिखाने और का राजनीतिक सत्ता हथियाने का शुरू से ही सुनियोजित प्रयास किया गया है। इसका खुलासा करने के लिए हमें अध्ययन करने की जरूरत है जो हमारे बुद्धिजीवी और महापुरुषों ने लिखा है।

यहीं पर श्री कृष्ण के बारे में लिखते हुए प्रोफेसर कांचा हे कहते हैं -

"सभी हिन्दू देवताओं में सिर्फ कृष्ण ऐसे हैं जिन्हें गडरिये के रूप में दर्शाया गया है। वास्तव में कृष्ण के यादव सम्बन्ध और उन्हें पशु चराने वाले एक देवता के रूप में दर्शाए जाने के बीच एक निश्चित सम्बन्ध है। न तो ब्रह्मा का जो ब्राह्मण संतान थे और न विष्णु के अवतार राम का जो क्षत्रिय थे, किसी का भी सम्बन्ध कृष्ण की तरह पशुओं से नहीं दिखाया गया है। उन्होंने युद्ध लड़ा, जो उनके साहित्य की सर्वोच्च आध्यात्मिक गतिविधि है। 

दरअसल कृष्ण की अच्छाई का आधार भी एक युद्ध ही है जिसका संचालन उन्होंने किया और एक हिन्दू धार्मिक पुस्तक 'भगवद्गीता’की रचना की। भारत के स्वतन्त्रता संग्राम के दौरान बार-बार गीता की व्याख्या और पुनर्व्याख्या की गयी क्योंकि श्रम की भूमिका को लेकर यह एक तरह की अस्पष्टता पैदा करती है, और अंततः ब्राह्मण और वैश्यों ने इसकी ऐसी व्याख्या कर ही ली जो उनके वर्णधर्म को रास आती थी। 

आधुनिक हिन्दुत्व के लिए कृष्ण अगर मुख्य नायक नहीं हैं तो उसके दो कारण हैं : 

1. उनका सम्बन्ध यादवों से, जो उन्हें अपना राष्ट्रवादी नायक मानते हैं, और पशु चराने से है, और, 

2. कृष्ण ब्राह्मणों की विश्व-दृष्टि के अनुसार नहीं चले, राम की तरह उन्होंने ब्राह्मणों के निर्देश नहीं माने। उन्होंने अपने आप को ब्राह्मणों से ऊपर घोषित किया। 

हालांकि वे वर्णधर्म को मानते थे लेकिन अपने ब्राह्मण गुरुओं के आदेश पर उन्होंने शूद्रों का वध नहीं किया। वे द्रोणाचार्य और भीष्म के ऊपर रहे जबकि राम हमेशा वशिष्ठ और अन्य ब्राह्मण गुरुओं के वशीभूत रहे। शम्बूक का वध भी राम ने ब्राह्मण गुरुओं के कहने पर ही किया था। यही कारण है कि संघ परिवार राम को अपने अखंड हिन्दू भारत का नायक बनाता है और कृष्ण को हाशिये पर रखता है। 

यादवों के इस प्रक्षेपण का कारण यह है कि वे पूरे देश में हमेशा ही हिन्दुओं के शत्रु रहे। लालू प्रसाद यादव, मुलायम सिंह यादव और एक यादव लेखक द्वारा लिखी पुस्तक ‘व्हाई आई एम् नॉट हिन्दू’ का उद्भव मांस और दूध के अर्थशास्त्रियों के ऐतिहासिक नायकत्व तथा ब्राह्मणों की परजीविता का ही हिस्सा है। 

यहाँ तक कि आज के आधुनिक युग में भी ब्राह्मणों ने, वे चाहे जिस भी विचारधारा से सम्बद्ध हों, उत्पादक समूहों के इतिहास का आकलन उस तरह नहीं किया है जैसे किया जाना चाहिए था। कृष्ण के वंशज होने के बावजूद समाज में यादवों का स्थान सर्वोच्च नहीं है। उनकी सामाजिक स्थिति ब्राह्मणों से ऊपर होनी चाहिए थी और जिस दैवी पुस्तक को खुद कृष्ण द्वारा लिखित माना जाता है उसमें पशु चराने को सबसे सम्मानित आध्यात्मिक कर्म के रूप में चित्रित किया जाना चाहिए था। अगर ऐसा होता तो यादव खुद ही मंदिरों में सुबह-शाम गीता का पाठ किया करते और दिन भर कृष्ण की तरह गाय चराया करते। 

स तरह पशु चराने की गतिविधि को आध्यात्मिक दर्जा मिल सकता था। पशुपालक होते हुए अगर कृष्ण गीता लिख सकते हैं तो यादवों को भी शिक्षा पाने और किताबें लिखने का अधिकार मिलना चाहिए था। ऐसे में भारतीय गुरुकुलों के मुखिया यादव हुआ करते और उनका नाम भी शायद ‘गडरिया विद्यालय’ हुआ करता।"

इस प्रसंग को बहुत विस्तार से वह अपनी पुस्तक हिंदुत्व मुक्त भारत में करते हैं जिसका बहुत कम पाठ यादव और समाज ने आज तक किया होगा। 

अब यहां इस बात का कहा जाना ज्यादा प्रासंगिक है कि सांस्कृतिक समाजवाद बनाने के लिए हमें  साहित्यिक समृद्धि की बहुत जरूरत पड़ेगी जिसके लिए एक स्कूल की स्थापना अनिवार्य हिस्सा होगी। 

अखिलेश जी के तरह के युवाओं को भविष्य की राजनीति करने के लिए "हमारे जैसे अध्ययनशील समूह की सख्त जरूरत है लेकिन न जाने क्यों वह इस बात से घबराते हैं की सत्य बोलना अच्छा नहीं है झूठ बोलने के लिए तो उनके इर्द-गिर्द मौजूद मनुवादी सोच के लोग पर्याप्त मात्रा में हैं लेकिन कबीर जैसा सत्य कहने वाला व्यक्ति कहां से ले आएंगे"। और जब तक ऐसे लोग नहीं आएंगे तब तक वह सत्य को चुनौती के साथ अपने दुश्मनों के सामने पेश नहीं कर सकते। 

इसलिए मेरा मानना है कि हमें ऐसे नेताओं के इर्द-गिर्द निरंतर लगे रहकर के यह दबाव बनाने की जरूरत है कि वह "सांस्कृतिक समाजवाद" की अवधारणा पर काम करने की योजना पर काम करें जो राजनीतिक कार्य से बिल्कुल भिन्न होगा‌।

इसी से संघ और मनुस्मृतिवादी पाखंड का मुकाबला किया जा सकता है। 

महाकुंभ में स्नान करके उनसे लड़ना संभव नहीं है क्योंकि वह रेनकोट पहन करके बहुत मुश्किल से उस पानी में डुबकी लगाते हुए डर रहे थे और दिल्ली से जाकर अपनी एजेंसियों से ही यह कहलवा रहे थे कि वह पानी तो जहरीला हो गया है।

इसलिए सांस्कृतिक साम्राज्यवाद के खिलाफ लड़ाई लड़ी जाए तभी ऐसे अवसरवादी और जासूसों को पहचाना जा सकता है। 

आमीन

साभार ; अहीर एस के की पोस्ट। प्रो.कांचा इलैया एवं अन्य को भी। 

(कृपया इस पोस्ट को अधिक से अधिक शेयर करिए जिससे आम आदमी तक असली लड़ाई की योजना पहुंच सके!)

Ajay Singh Yadav 

Akhilesh Yadav 

Aheer S. K. Yadav 

Ajay Yadav 

Omprakash Yadav Janardan Yadav Atul Yadav Vishram Singh Frank Huzur Rahul Gandhi Jagdish Yadav Urmilesh B.r. Viplavi Subhash Chandra Kushwaha Bijender Yadav Bishunpur Jaunpur ALL INDIA YADAV MahaSabha

कृपया इस लेख को पढ़िए और इसे आगे तक बढ़ाईऐ।

-डॉ लाल रत्नाकर 



रविवार, 8 सितंबर 2024

उत्तर प्रदेश में हो रही हत्याओं के लिए जितनी जिम्मेदार भाजपा है उससे कम जिम्मेदार विपक्ष नहीं है?

उत्तर प्रदेश में हो रही हत्याओं के लिए जितनी जिम्मेदार भाजपा है उससे कम जिम्मेदार विपक्ष नहीं है ? 


जिस वजह से किसी जाति को किसी धर्म को चिन्हित किया जाता है इसका सीधा-सीधा संबंध होता है कि वह किसी विचारधारा से संबंद्ध है। उस विचारधारा को मानने वाले लोग जब उसे समाज की रक्षा नहीं कर पाते और उस समाज को आपस में एकजुट नहीं कर पाते तो इसका मतलब होता है कि वह विचारधारा विचारधारा नहीं है बल्कि दिखावा है।

अब यहां यक्ष प्रश्न खड़ा होता है कि किसी पार्टी के कार्यकर्ताओं में यह ताकत कहां से आती जाती है। भाजपा के विभिन्न संगठन गोल बनाकर के नफरत के जहर समाज में बो रहे हैं, दूसरी तरफ समाजवादी पार्टी के बड़े नेताओं के साथ जो कुछ हो रहा है उसके खिलाफ पूरी समाजवादी पार्टी खड़ी क्यों नजर नहीं आती या नजर नहीं आई?

जहां तक कानून का सवाल है एक मुख्यमंत्री अपने ऊपर दर्ज सारे मुकदमे वापस कर लेता है क्या इसके खिलाफ समाजवादी पार्टी कोर्ट, गई बसपा ने आवाज उठाई, कांग्रेस क्या कर रही थी? 

जनाआंदोलन क्यों खड़े किए जाते हैं ? सरकारों के तानाशाही रवैया के खिलाफ ही, सरकारों को भयभीत होना पड़ता है क्या समाजवादी पार्टी की सरकार अपने समय में भयभीत नहीं रही है चाहे वह आरक्षण का सवाल हो पोस्टिंग का सवाल हो या किसी भी तरह की जानो उपयोगी कार्य का सवाल हो सब कुछ तो संवैधानिक था फिर भी क्यों डरती थी। 

जिस समय वह यश भारती पुरस्कार बांट रही थी क्या उसने समाज को मजबूत करने के लिए लोगों में रोजगार हथियार और संविधान बांटे थे?

हथियार बांटने का दौर :

उत्तर प्रदेश में जब समाजवादी पार्टी की सरकार थी तब भाजपा के लोग त्रिशूल और हथियार बांट रहे थे मुजफ्फरनगर में हिंदू मुस्लिम जैसा उपद्रव कर रहे थे।

इसको संभालने की किसकी जिम्मेदारी थी ?

निरंकुश भाजपा सरकार के असंवैधानिक कार्यों पर समाजवादी पार्टी नजर आ रही थी नहीं आ रही थी एक उदाहरण भी नहीं है जहां समाजवादी पार्टी का नेता खड़ा होकर के जनता का आवाहन कर रहा हूं इस सड़क से निकलो और इस सरकार को घेरों।

यह वही समय था जब पूरी दुनिया में लोग सड़कों पर निकाल कर अपने अधिकारों की बात कर रहे थे उत्तर प्रदेश सो रहा था और एक मुसलमान नेता को तहस नहस किया जा रहा था, जो काम न्यायालय को करना चाहिए वह काम पुलिस कर रही थी और पुलिस किसके इशारे पर कर रही थी सरकार के इसारे पर कर रही थी सरकार में बैठे कौन थे जिन्होंने सरकार में आते ही अपने सारे मुकदमे वापस ले लिए थे। 

क्या ऐसे व्यक्ति का घेराव नहीं हो सकता था हो सकता था लेकिन नहीं हुआ इसकी जिम्मेदारी किसकी बनती है?यही विचारणीय सवाल है। इसी सवाल का उत्तर ढूंढने  की जरूरत है।

आज़म ख़ान :

उर्दू में तीख़े तंज़ करके अपने राजनीतिक विरोधियों को मुश्किल में डालने वाले आज़म ख़ान ख़ुद क़ानूनी शिकंजे में फंस गए और लंबी क़ानूनी लड़ाई के बाद आख़िरकार रिहा हो ही गए.

एक मध्यवर्गीय परिवार में पैदा हुए आज़म ख़ान ने 1970 के दशक में अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी से क़ानून की पढ़ाई की. यहीं के छात्रसंघ में सियासत का ककहरा सीखा. इंदिरा गांधी ने जब देश में आपातकाल लगाया तो वो भी जेल गए. जब बाहर आए तो नई पहचान और लंबा राजनीतिक सफ़र उनका इंतज़ार कर रहा था.

रामपुर को नवाबों का शहर कहा जाता है. इन्हीं नवाबों के साए में आज़म ख़ान ने रामपुर में अपनी राजनीतिक सरगर्मियां शुरू कीं. 1980 में पहली बार विधायक का चुनाव जीता और अगले दशकों में रामपुर को अपने नाम का पर्याय बना लिया.

नीचे के लिंक पर जाकर बीबीसी द्वारा आजम खान के पूरे राजनीतिक कैरियर को उल्लेखित किया गया है जिसे उदाहरण के लिए देख सकते हैं।

https://www.bbc.com/hindi/india-61522786

फ्रैंक हुजूर की पोस्ट से यह अंश लिया गया है जिस्म भी यही शिकायत है और इसकी टिप्पणियों में बहुत महत्वपूर्ण बातें आई हैं जिन्हें नीचे दिया जा रहा है।
"उत्तर प्रदेश में #यादवसमाज नेतृत्वविहीन है। Leaderless and Rudderless 
यही कारण है कि भाजपा आरएसएस शासन लक्षित हत्याएं कर रहा है क्योंकि सरकार अच्छी तरह से जानती है कि समाजवादी पार्टी कभी भी सड़कों पर नहीं उतरेगी या केवल यादव पीड़ितों के नाम पर एक बड़ा आंदोलन शुरू नहीं करेगी। 
क्योंकि #अखिलेशयादव के नेतृत्व वाली #समाजवादीपार्टी अपनी पहचान सिर्फ #यादव या #मुसलमान से नहीं रखना चाहती. 
दरअसल, अखिलेश यादव के नेतृत्व वाली समाजवादी पार्टी ने बहुत पहले ही संकेत दे दिया है कि पार्टी सभी जातियों के लिए खड़ी है. 
यहां तक ​​कि एक टेलीविजन साक्षात्कार में #2022uttarpradeshassemblypolls जब एक महिला एंकर ने Akhilesh Yadav से पूछा था कि वह एम-वाई वोटबैंक के साथ विधानसभा चुनाव कैसे जीतेंगे, तो अखिलेश ने कहा था कि उनके राजनीतिक शब्दकोष में वाई का मतलब युवा है, न कि यादव और एम का मतलब महिला है, न कि मुस्लिम।

पुलिस एनकाउंटर में मारे गए मंगेश यादव की माँ का इंटरव्यू सुनिए है. माँ ज्यादा पढ़ी लिखी नही है लेकिन उसे जाति वर्ण अव्यवस्था के विषय में JNU के किसी भी सवर्ण प्रोफेसर से ज्यादा ज्ञान है.
इस माँ को पता है अहीर और गड़ेरिया का समाज में सामाजिक स्तर किया है. इस माँ को पता है वो गरीब क्यों है, पीड़ित क्यों है और सरकारी तंत्र उनके खिलाफ क्यों है.
माँ को भली भांति पता है ठाकुरवाद और ब्राह्मणवाद का समाज पर आधिपत्य है. लेकिन समाजवादी पार्टी के नेताओं और पार्टी के मुखिया जाति पर बात करने से बचते हैं.
ये लोग दलित दलित ऐसे करते हैं जैसे खुद ठाकुर और बाभन हैं. मैं यहां किसी के पक्ष या खिलाफ नही लिख रहा हूँ. मैं केवल हकीकत बता रहा हूँ.
बहुजन समाज के पत्रकारों को माता जी को PodCast में बुलाना चाहिए. वो जातीय वर्ण अव्यवस्था पर चिंतन और मंथन कर सकती हैं."

लियाकत अंसारी -
काश आप लोगों की यही सोच और हमदर्दी समाजवादी पार्टी को अपने कंधो के सहारे आगे बढ़ने वाले नेता माननीय आजम खां साहब के प्रति दिखाई या लिखी गई होती तो आज आजम खां साहब इतने कमजोर और बेसहारा न दिखते और उनका ये हाल न होता।
लियाकत अंसारी-
सर, यह समय दुख या अफसोस जताने का नहीं है। बॉस, हमारे राष्ट्रीय अध्यक्ष और पार्टी के सभी बड़े-छोटे नेताओं को एक भाषा और एक आवाज चाहिए, अलग-अलग भाषाएं नहीं।

Aqib Mohammad
अखिलेश यादव जी को अपने और परायों में फ़र्क नहीं पता है...? उनके अपने सबसे वफादार और भरोसेमंद कोर वोटर/ साथी यादव और पसमांदा हैं...?
लेकिन अखिलेश जी को इनके साथ होने वाले किसी भी समाजी, सियासी जैसे उत्पीड़न पर खड़े होने पर शर्म आती है...? इनसे कहीं बेहतर लीडर चंद्र शेखर आजाद जी है, जो बहुजन समाज के किसी भी जाति/ वर्ग के साथ होने वाले हर नाइंसाफी पर, साथ खड़े मिलते हैं...?
हो बरबाद, ऐसा फर्जी समाजवाद...?

मनोज सोनभद्र
पूर्ण रुप से सहमत, जो व्यक्ति अपने लोगों का नही वह किसी का नही होता है। मैं इससे पूर्ण रुप से सहमत हुं।
Amar Nath Yadav
मैं आपकी राय से सहमत हूं मैंने जैसे ही इस नेताओं से इस विषय को लेकर बात किया तो जाए तो इन्होंने यही कहा कि पार्टी केवल एक जात को लेकर लड़ाई नहीं लड़एगी।

सोमवार, 12 अगस्त 2024

आज की तारीख में कौन समझता और समझाता है समाजवाद !

 समाजवाद ?

आज की तारीख में कौन समझता और समझाता है समाजवाद !

समाजवादी विचारधारा का जितना दोहन विगत वर्षों में हुआ है उसका असली मूल्यांकन कब होगा यह शोध का विषय है। 

कई समाजवादियों की संगत में होने का जो अवसर मिला उससे जिस तरह की जिज्ञासा जागृत हुई उसको कभी कभार समझने की कोशिश किया तो जिन विद्वानों ने उसपर प्रकाश डाला वह अपने आप में बहुत ही निराशाजनक परिस्थितियां उत्पन्न की।

वर्तमान में समाजवाद की समझ का प्रयोग भी उतना ही जटिल है। इसका उल्लेख बहुत साधारण तरीके से किया जाए तो यही समझ में आता है कि जो सबसे ज्यादा वर्चस्ववादी और ब्राह्मणवादी है उसे समाजवादी कैसे कहा जा सकता है?

उन करोड़ों समाजवादियों को जो देश की बिना किसी लोभ लालच के सेवा कर रहे हैं या करते रहे हैं को सादर नमन।

(- साभार गूगल )

"समाजवाद एक आर्थिक-सामाजिक दर्शन है। समाजवादी व्यवस्था में धन-सम्पत्ति का स्वामित्व और वितरण समाज के नियन्त्रण के अधीन रहते हैं। आर्थिक, सामाजिक और वैचारिक प्रत्यय के तौर पर समाजवाद निजी सम्पत्ति पर आधारित अधिकारों का विरोध करता है। उसकी एक बुनियादी प्रतिज्ञा यह भी है कि सम्पदा का उत्पादन और वितरण समाज या राज्य के हाथों में होना चाहिए। राजनीति के आधुनिक अर्थों में समाजवाद को पूँजीवाद या मुक्त बाजार के सिद्धांत के विपरीत देखा जाता है। एक राजनीतिक विचारधारा के रूप में समाजवाद युरोप में अठारहवीं और उन्नीसवीं सदी में उभरे उद्योगीकरण की अन्योन्यक्रिया में विकसित हुआ है।

ब्रिटिश राजनीतिक विज्ञानी सी० ई० एम० जोड ने कभी समाजवाद को एक ऐसी टोपी कहा था जिसे कोई भी अपने अनुसार पहन लेता है। समाजवाद की विभिन्न किस्में सी० ई० एम० जोड के इस चित्रण को काफी सीमा तक रूपायित करती है। समाजवाद की एक किस्म विघटित हो चुके सोवियत संघ के सर्वसत्तावादी नियंत्रण में चरितार्थ होती है जिसमें मानवीय जीवन के हर सम्भव पहलू को राज्य के नियंत्रण में लाने का आग्रह किया गया था। उसकी दूसरी किस्म राज्य को अर्थव्यवस्था के नियमन द्वारा कल्याणकारी भूमिका निभाने का मंत्र देती है। भारत में समाजवाद की एक अलग किस्म के सूत्रीकरण की कोशिश की गयी है। राममनोहर लोहिया, जय प्रकाश नारायण और नरेन्द्र देव के राजनीतिक चिंतन और व्यवहार से निकलने वाले प्रत्यय को 'गाँधीवादी समाजवाद' की संज्ञा दी जाती है।

समाजवाद अंग्रेजी और फ्रांसीसी शब्द 'सोशलिज्म' का हिंदी रूपांतर है। 19वीं शताब्दी के पूर्वार्ध में इस शब्द का प्रयोग व्यक्तिवाद के विरोध में और उन विचारों के समर्थन में किया जाता था जिनका लक्ष्य समाज के आर्थिक और नैतिक आधार को बदलना था और जो जीवन में व्यक्तिगत नियंत्रण की जगह सामाजिक नियंत्रण स्थापित करना चाहते थे।

समाजवाद शब्द का प्रयोग अनेक और कभी कभी परस्पर विरोधी प्रसंगों में किया जाता है; जैसे समूहवाद अराजकतावाद, आदिकालीन कबायली साम्यवाद, सैन्य साम्यवाद, ईसाई समाजवाद, सहकारितावाद, आदि - यहाँ तक कि नात्सी दल का भी पूरा नाम 'राष्ट्रीय समाजवादी दल' था।

समाजवाद की परिभाषा करना कठिन है। यह सिद्धांत तथा आंदोलन, दोनों ही है और यह विभिन्न ऐतिहासिक और स्थानीय परिस्थितियों में विभिन्न रूप धारण करता है। मूलत: यह वह आंदोलन है जो उत्पादन के मुख्य साधनों के समाजीकरण पर आधारित वर्गविहीन समाज स्थापित करने के लिए प्रयत्नशील है और जो मजदूर वर्ग को इसका मुख्य आधार बनाता है, क्योंकि वह इस वर्ग को शोषित वर्ग मानता है जिसका ऐतिहासिक कार्य वर्गव्यवस्था का अंत करना है।

इतिहास

आदिकालीन साम्यवादी समाज में मनुष्य पारस्परिक सहयोग द्वारा आवश्यक चीजों की प्राप्ति और प्रत्येक सदस्य के आवश्यकतानुसार उनका आपस में बँटवारा करते थे। परंतु यह साम्यवाद प्राकृतिक था; मनुष्य की सचेत कल्पना पर आधारित नहीं था। आरंभ के ईसाई पादरियों की रहन-सहन का ढंग बहुत कुछ साम्यवादी था, वे एक साथ और समान रूप से रहते थे, परंतु उनकी आय का स्रोत धर्मावलंबियों का दान था और उनका आदर्श जनसाधारण के लिए नहीं, वरन् केवल पादरियों तक सीमित था। उनका उद्देश्य भी आध्यात्मिक था, भौतिक नहीं। यही बात मध्यकालीन ईसाई साम्यवाद के संबंध में भी सही है। पीरू (Peru) देश की प्राचीन इंका (Inka) सभ्यता को 'सैन्य साम्यवाद' की संज्ञा दी जाती है, परंतु उसका आधार सैन्य संगठन था और वह व्यवस्था शासक वर्ग का हितसाधन करती थी। नगरपालिकाओं द्वारा लोकसेवाओं के साधनों को प्राप्त करना, अथवा देश की उन्नति के लिए आर्थिक योजनाओं के प्रयोग मात्र को समाजवाद नहीं कहा जा सकता, क्योंकि यह आवश्यक नहीं कि इनके द्वारा पूँजीवाद को ठेस पहुँचे। नात्सी दल ने बैंकों का राष्ट्रीकरण किया था परंतु पूँजीवादी व्यवस्था अक्षुण्ण रही।

समाजवाद का भावनात्मक ढाँचा गढ़ने में इंग्लैण्ड में सत्रहवीं सदी के दौरान ईसाइयत के दायरे में विकसित लेवलर्स तथा डिग्गर्स व सोलहवीं और सत्रहवीं सदी में मध्य युरोप में विकसित होने वाले ऐनाबैपटिस्ट जैसे रैडिकल आंदोलनों की महती भूमिका रही है। लेकिन समाजवाद की आधुनिक और औपचारिक परिकल्पना फ़्रांसीसी विचारकों सैं-सिमों और चार्ल्स फ़ूरिए तथा ब्रिटिश चिंतक राबर्ट ओवेन की निष्पत्तियों से निकलती है। समाजवाद के ये शुरुआती विचारक व्यक्तिवाद और प्रतिस्पर्द्धा की जगह आपसी सहयोग पर आधारित समाज की कल्पना करते थे। उन्हें विश्वास था कि मानवीय स्वभाव और समाज का विज्ञान गढ़ कर सामाजिक ताने-बाने को बेहतर रूप दिया जा सकता है। परंतु वांछित सामाजिक रूपों के ठोस ब्योरों, उन्हें प्राप्त करने की रणनीति तथा मानव प्रकृति की समझ को लेकर उनके बीच कई तरह के मतभेद थे। उदाहरण के लिये, सैं-सिमों तथा फ़ूरिए रूसो के इस मत से सहमत नहीं थे कि मनुष्य की प्रकृति अपनी बनावट में तो अच्छी, उदात्त और विवेकपूर्ण है लेकिन आधुनिक समाज और निजी सम्पत्ति ने उसे भ्रष्ट कर दिया है। इसके विरोध में उनका तर्क यह था कि मानवीय प्रकृति के कुछ स्थिर और निश्चित रूप होते हैं जिनका परस्पर सहयोग के आधार पर आपस में मेल कराया जा सकता है। ओवेन का मत सैं-सिमों और फ़ूरिए से भी अलग था। उनका कहना था कि मनुष्य की प्रकृति बाहरी परिस्थितियों से तय होती है और उसे इच्छित रूप दिया जा सकता है। इसलिए समाज की परिस्थितियों को इस तरह बदला जाना चाहिए कि मनुष्य की प्रकृति पूर्णता की ओर बढ़ सके। उनके अनुसार अगर प्रतिस्पर्द्धा और व्यक्तिवाद की जगह आपसी सहयोग और एकता को बढ़ावा दिया जाएगा तो समूची मनुष्यता का भला किया जा सकता है।

समाजवाद की राजनीतिक विचारधारा उन्नीसवीं सदी के तीसरे और चौथे दशकों के दौरान इंग्लैण्ड, फ़्रांस तथा जर्मनी जैसे युरोपीय देशों में लोकप्रिय होने लगी थी। उद्योगीकरण और शहरीकरण की तेज गति तथा पारम्परिक समाज के अवसान ने युरोपीय समाज को सुधार और बदलाव की शक्तियों का अखाड़ा बना दिया था जिसमें मजदूर संघों और चार्टरवादी समूहों से लेकर ऐसे गुट सक्रिय थे जो आधुनिक समाज की जगह प्राक्-आधुनिक सामुदायिकतावाद की वकालत कर रहे थे।

मार्क्स और एंगेल्स द्वारा प्रतिपादित वैज्ञानिक समाजवाद का विचार सामाजिक और राजनीतिक उथलपुथल की इसी पृष्ठभूमि में विकसित हुआ था। मार्क्स ने सैं-सिमों, फ़ूरिए और ओवेन के विचारों से प्रेरणा तो ली, लेकिन अपने ‘वैज्ञानिक’ समाजवाद के मुकाबले उनके समाजवाद को ‘काल्पनिक’ घोषित कर दिया। इन पूर्ववर्ती चिंतकों की तरह मार्क्स समाजवाद को कोई ऐसा आदर्श नहीं मानते कि उसका स्पष्ट ख़ाका खींचा जाए। मार्क्स और एंगेल्स समाजवाद को किसी स्वयं-भू सिद्धांत के बजाय पूँजीवाद की कार्यप्रणाली से उत्पन्न होने वाली स्थिति के रूप में देखते हैं। उनका मानना था कि समाजवाद का कोई भी रूप ऐतिहासिक प्रक्रिया से ही उभरेगा। इस समझ के चलते मार्क्स और एंगेल्स को समाजवाद की विस्तृत व्याख्या करने या उसे परिभाषित करने से भी गुरेज़ था। उनके लिए समाजवाद मुख्यतः पूँजीवाद के नकार में खड़ा प्रत्यय था जिसे एक लम्बी क्रांतिकारी प्रक्रिया के ज़रिये अपनी पहचान ख़ुद गढ़नी थी। समाजवाद के विषय में मार्क्स की सबसे महत्त्वपूर्ण रचना 'क्रिटीक ऑफ़ द गोथा प्रोग्रैम' है जिसमें उन्होंने समाजवाद को साम्यवादी समाज के दो चरणों की मध्यवर्ती अवस्था के तौर पर व्याख्यायित किया है।

गौरतलब है कि मार्क्स की इस रचना का प्रकाशन उनकी मृत्यु के आठ साल बाद हुआ था। तब तक मार्क्सवादी सिद्धांतों में इसे ज़्यादा महत्त्व नहीं दिया जाता था। इस विमर्श को मार्क्सवाद के मूल सिद्धांतों में शामिल करने का श्रेय लेनिन को जाता है, जिन्होंने अपनी कृति 'स्टेट ऐंड रेवोल्यूशन' में मार्क्स के हवाले से समाजवाद को साम्यवादी समाज की रचना में पहला या निम्नतर चरण बताया। लेनिन के बाद समाजवाद मार्क्सवादी शब्दावली में इस तरह विन्यस्त हो गया कि कोई भी व्यक्ति या दल किसी ख़ास वैचारिक दिक्कत के बिना ख़ुद को समाजवादी या साम्यवादी कह सकता था। इस विमर्श की विभाजक रेखा इस बात से तय होती थी कि किसी दल या व्यक्ति के लिए क्रांतिकारी गतिविधियों का तात्कालिक और दूरगामी लक्ष्य क्या है। यानी अगर कोई ख़ुद को समाजवादी कहता था तो इसका मतलब यह होता था कि वह साम्यवादी समाज की रचना के पहले चरण पर जोर देता है। यही वजह है कि कई समाजवादी देशों में शासन करने वाले दल जब ख़ुद को कम्युनिस्ट घोषित करते थे तो इसे असंगत नहीं माना जाता था।

बीसवीं शताब्दी में समाजवाद का अंतर्राष्ट्रीय प्रसार तथा सोवियत शासन व्यवस्था एक तरह से सहवर्ती परिघटनाएँ मानी जाती हैं। यह एक ऐसा तथ्य है जिसने समाजवाद के विचार और उसके भविष्य को गहराई से प्रभावित किया है। उदाहरणार्थ, क्रांति के बाद सोवियत संघ उसके समर्थकों और आलोचकों, दोनों के लिए समाजवाद का पर्याय बन गया। सोवियत समर्थकों की दलील यह थी कि उत्पादन के प्रमुख साधनों के समाजीकरण, बाज़ार को केंद्रीकृत नियोजन के मातहत करने, तथा विदेश व्यापार व घरेलू वित्त पर राज्य के नियंत्रण जैसे उपाय अपनाने से सोवियत संघ बहुत कम अवधि में एक औद्योगिक देश बन गया। जबकि उसके आलोचकों का कहना था कि यह एक प्रचारित छवि थी क्योंकि विराट नौकरशाही, राजनीतिक दमन, असमानता तथा लोकतंत्र की अनदेखी स्वयं ही समाजवाद के आदर्श को खारिज करने के लिए काफी थी। समाजवाद के प्रसार में सोवियत संघ की दूसरी भूमिका एक संगठनकर्ता की थी। समाजवादी क्रांति के प्रसार के लिए कम्युनिस्ट इंटरनेशनल जैसे संगठन की स्थापना करके उसने ख़ुद को समाजवाद का हरावल सिद्ध किया। इस संगठन ने विश्व की कम्युनिस्ट पार्टियों का लम्बे समय तक दिशा-निर्देशन किया। सोवियत संघ की भूमिका का तीसरा पहलू यह था कि उसने पूर्वी युरोप में कई हमशक्ल शासन व्यवस्थाएँ कायम की। अंततः सोवियत संघ समाजवाद की प्रयोगशाला इसलिए भी माना गया क्योंकि रूसी क्रांति के बाद स्तालिन के नेतृत्व में यह सिद्धांत प्रचारित किया गया कि समाजवादी क्रांति का अन्य देशों में प्रसार करने से पहले उसे एक ही देश में मजबूत किया जाना चाहिए। कई विद्वानों की दृष्टि में यह एक ऐसा सूत्रीकरण था जिसने राष्ट्रीय समाजवाद की कई किस्मों के उभार को वैधता दिलायी।

द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद शुरू हुई वि-उपनिवेशीकरण की प्रक्रिया के दौरान समाजवाद और राष्ट्रवाद का यह संश्रय तीसरी दुनिया के देशों में समाजवाद के विकास का एक प्रारूप सा बन गया। चीन, वियतनाम तथा क्यूबा जैसे देशों में समाजवाद के प्रसार की यह एक केंद्रीय प्रवृत्ति थी।

सोवियत समर्थित समाजवाद के अलावा उसका एक अन्य रूप भी है जिसने पूँजीवादी देशों को अप्रत्यक्ष ढंग से प्रभावित किया है। मसलन, समाजवाद के तर्क और उसके आकर्षण को प्रति-संतुलित करने के लिए पश्चिम के पूँजीवादी देशों को अपनी अर्थव्यवस्था के साँचे को बदल कर उसे कल्याणकारी रूप देना पड़ा। इस संदर्भ में स्कैंडेनेवियाई देशों, पश्चिमी युरोप तथा आस्ट्रेलेशिया क्षेत्र के देशों में कींस के लोकोपकारी विचारों से प्रेरित होकर सोवियत तर्ज़ के समाजवाद का विकल्प गढ़ने का प्रयास किया गया। माँग के प्रबंधन, आर्थिक राष्ट्रवाद, रोजगार की गारंटी, तथा सामाजिक सेवाओं के क्षेत्र को मुनाफाखोरी की प्रवृत्तियों से मुक्त रखने की नीति पर टिके इन कल्याणकारी उपायों ने एकबारगी पूँजीवाद और समाजवाद के अंतर को ही धुँधला कर दिया था। राज्य के इस कल्याणकारी मॉडल को एक समय पूँजीवाद की विसंगतियों— बेकारी, बेरोज़गारी, अभाव, अज्ञान आदि का स्थाई इलाज बताया जा रहा था। इस मॉडल की आर्थिक और राजनीतिक कामयाबी का सुबूत इस बात को माना जा सकता है कि अगर वामपंथी दायरों में इन उपायों की प्रशंसा की गयी तो दक्षिणपंथी राजनीति भी उनका खुला विरोध नहीं कर सकी। दूसरे विश्व-युद्ध की समाप्ति के बाद तीन दशकों तक बाज़ार केंद्रित समाजवाद का यह मॉडल काफी प्रभावशाली ढंग से काम करता रहा।

लेकिन सातवें दशक में मंदी और मुद्रास्फीति की दोहरी मार तथा कल्याणकारी पूँजीवाद के गढ़ में बढ़ते सामाजिक और औद्योगिक असंतोष के कारण इस मॉडल के औचित्य को लेकर सवाल खड़े होने लगे। मार्क्सवादी शिविर के विद्वान भी लगातार यह कहते आ रहे थे कि कल्याणकारी भंगिमाओं ने असमानता और शोषण को खत्म करने के बजाय पूँजीवाद को ही मजबूत किया है। इस मॉडल का एक आपत्तिजनक पहलू यह भी प्रकट हुआ कि कामगार वर्ग को जीवन की बुनियादी सुविधाएँ प्रदान करने वाली मशीनरी के द्वारा राज्य उस पर नियंत्रण करने की स्थिति में आ गया।

बाजार को कायम रखते हुए समाजवाद के कुछ तत्त्वों पर अमल करने वाले इस मॉडल का नव-उदारतावादी बुद्धिजीवी शुरू से ही विरोध करते आये थे। सातवें दशक में यह वर्ग जोर-शोर से कहने लगा था कि समाजवाद न केवल अर्थव्यवस्था को जड़ (निर्जीव) बना देता है बल्कि व्यक्ति की स्वतंत्रता भी छीन लेता है। नवें दशक में जब सोवियत संघ के साथ पूर्वी युरोप की समाजवादी व्यवस्थाएँ एक के बाद एक ढहने लगी तो समाजवाद की इस आलोचना को व्यापक वैधता मिलने लगी और समाजवाद के साथ इतिहास के अंत की भी बातें की जाने लगी। विजय के उन्माद में उदारवादी बुद्धिजीवियों ने यह भी कहा कि मनुष्यता के लिए पूँजीवाद ही एकमात्र विकल्प है लिहाजा अब उसके विकल्प की बात भूलकर केवल यह सोचा जाना चाहिए कि पूँजीवाद की कोई और शक्ल क्या हो सकती है।

काल्पनिक समाजवाद

मुख्य लेख: कल्पनालोकीय समाजवाद

कार्ल मार्क्स (1818-83) के साथी एंगिल्स ने अपने पूर्व प्रचलित आधुनिक समाजवाद के प्रारम्भिक धाराओं को काल्पनालोकीय समाजवाद (Utopian socialism) का नाम दिया। इन विचारों का आधार भौतिक और वैज्ञानिक नहीं, नैतिक था; इनके विचारक ध्येय की प्राप्ति के सुधारवादी साधनों में विश्वास करते थे; और भावी समाज की विस्तृत परंतु अवास्तविक कल्पना करते थे। इनमें साँ सीमों (Saint-Simon), चार्ल्स फुरिये (Charles Fourier), और रॉबर्ट ओवेन आदि के समाजवादी विचार सम्मिलित किया गया है।

मार्क्स का वैज्ञानिक समाजवाद

त्रुटि: कोई पृष्ठ नहीं दिया गया (सहायता). कार्ल मार्क्स एंजिल्स द्वारा प्रतिपादित समाजवादी विचारधारा को वैज्ञानिक समाजवाद के नाम से जाना जाता है।कार्ल मार्क्स का दृष्टिकोण अनिवार्यता पूर्व कालीन समाजवादियों की उपेक्षा पूर्णतया वैज्ञानिक था मार्क्स के पूर्व के समाजवादी विचारक आर्थिक विषमता के स्थान पर धन कन्या योजना वितरण पर बल देते थे लेकिन उन्होंने यह नहीं बताया था कि यह विषमता किन कारणों से उत्पन्न होती है और उसका उत्पादन की विधियों के साथ क्या संबंध है।उन्होंने विद्यमान अवस्था को सुधारने के लिए कोई क्रियात्मक व्यवहारिक दर्शन भी प्रदान नहीं किया था इसके कारण इनकी विचारधारा को कल्पना वादी समाजवाद के नाम से जाना जाता है।

  मार्क्स ने आधुनिक समाज का बड़ी गुप्ता और आलोचनात्मक दृष्टि से अध्ययन किया है उसने पूंजीवाद के दोषों का वर्णन करने के साथ-साथ पूंजीवाद का अंत कर वर्ग भी समाज की स्थापना करने के लिए एक विधिवत प्रक्रिया का निरूपण भी किया है उसके द्वारा द्वंदात्मक भौतिकवाद तथा इतिहास की आर्थिक व्याख्या के आधार पर अब तक के घटना चक्र की व्याख्या प्रस्तुत की गई है और इस प्रकार उसने समाजवाद को उसकी भावुक तथा काल्पनिक पृष्ठभूमि से निकालकर उसे वैज्ञानिक रूप प्रदान किया है केवल इतना ही नहीं बल्कि समाजवादी व्यवस्था की स्थापना के उद्देश्य से उसके द्वारा विश्व के मजदूर एक हो जाओ इन शब्दों में श्रमिक वर्ग का क्रांति के लिए आवाहन किया गया है उसके द्वारा श्रमिक वर्ग को संगठित करने का भी प्रत्येक संभव प्रयत्न किया गया है इस दृष्टि से 1834 "प्रथम अंतरराष्ट्रीय" की स्थापना एक महत्वपूर्ण कदम था इस प्रकार उसने विद्यमान व्यवस्था की व्याख्या करने के अतिरिक्त विश्व की आर्थिक और राजनीतिक स्थिति को परिवर्तित करने का एक व्यापारिक मार्ग बताया है।

फेबियसवाद

मुख्य लेख: फ़ेबियन समाजवाद

ब्रिटेन में फेबियन सोसायटी की स्थापना सन् 1883-84 ई. में हुई। रॉवर्ट ऑवेन तथा चार्टिस्ट आंदोलन के प्रभाव से यहाँ स्वतंत्र मजदूर आंदोलन की नींव पड़ चुकी थी, फेबियन सोसाइटी ने इस आंदोलन को दर्शन दिया। इस सभा का नाम फेबियस कंकटेटर फेबियन (Fabius Cunctater) के नाम से लिया गया है। फेबियस प्राचीन रोम का एक सेनानी था जिसने कार्थेंज के प्रसिद्ध सेनानायक हन्नीबल (Hannibal) के विरुद्ध संघर्ष में धैर्य से काम लिया और गुरीला नीति द्वारा उसको कई वर्षों में परास्त किया। इसी प्रकार फेबियन समाजवादियों का विचार है कि पूँजीवाद को केवल एक मुठभेड़ में क्रांतिकारी मार्ग द्वारा परास्त नहीं किया जा सकता। इसके लिए पर्याप्त काल तक सोच-विचार और तैयारी की आवश्यकता है। इनका तरीका विकास और सुधारवादी है। स्वतंत्र मजदूर दल की स्थापना के पूर्व ये ब्रिटेन के विभिन्न राजनीतिक दलों में प्रवेश कर अपना उद्देश्य पूरा करना चाहते थे। इनका मुख्य ध्येय चरम नैतिक संभावनाओं के अनुसार समाज का पुनर्निर्माण था। ये राज्य को वर्गशासन का यंत्र न मानकर एक सामाजिक यंत्र मानते हैं जिसके द्वारा समाजकल्याण और समाजवाद की स्थापना संभव है। इन विचारकों ने न केवल संसद् वरन् नगरपालिका और ग्रामीण क्षेत्रीय परिषदों द्वारा भी समाजवादी प्रयोगों का कार्यक्रम अपनाया। अत: इनके विचारों को लोकतंत्रीय, संसदीय, बैलट बक्स, चुंगी, विकास अथवा सुधारवादी समाजवाद की संज्ञा दी जाती है। इन विचारकों में प्रमुख सिडनी वेब (Sydney Webb), जाज बर्नाड शॉ, कोल (G. D. H. Cole), ऐनी बेसेंट (Anne Besant), ग्रहम वालस (Grahem Wallace) इत्यादि हैं। इन विचारकों पर ब्रिटिश परंपरा, उपयोगितावाद, राबर्ट ऑवेन, ईसाई समाजवाद और चार्टिस्ट आंदोलन तथा जॉन स्टुआर्ट मिल के अर्थशास्त्रियों के विचारों का गहरा प्रभाव है।

जर्मनी का पुनरावृत्तिवाद

मुख्य लेख: पुनरावृत्तिवाद

जर्मनी का पुनरावृत्तिवाद (revisionism) ब्रिटेन के फेबियसवाद तथा जर्मनी की परिवर्तित परिस्थतियों से प्रभावित हुआ था। जर्मनी और पूर्व यूरोपीय समाज का स्वरूप सामंतवादी तथा राज्य का प्रजातांत्रिक और निरंकुश था, अत: 19वीं शताब्दी के उत्तरार्ध तक यहाँ के समाजवादी विचार उग्र क्रांतिकारी तथा संगठन षड्यंत्रकारी थे। इन देशों पर मार्क्स के विचारों का प्रभाव था। परंतु 19वीं शताब्दी के अंत में जर्मनी में भी औद्योगिक उन्नति हुई और राज्य ने कुछ व्यक्तिगत तथा राजनीतिक अधिकार स्वीकार किए। फलत: मजदूरों का जीवनस्तर ऊँचा हुआ तथा उनके राजनीतिक दल - सामाजिक लोकतंत्रवादी पार्टी (Social democratic party) का प्रभाव, भी बढ़ा। उसके अनेक सदस्य संसद् के सदस्य बन गए। इस स्थिति में यह बल सिद्धांतत: मार्क्स के क्रांतिकारी मार्ग को स्वीकार करते हुए भी व्यवहार में सुधारवादी हो गया। एडुआर्ड बर्नस्टाइन (Eduard Bernstein 1850-1932) ने इस वास्तविकता के आधार पर मार्क्सवाद के संशोधन का प्रयत्न किया। बर्नस्टाइन सामाजिक लोतंत्रवादी पार्टी का प्रमुख दार्शनिक और एंगिल्स का निकट शिष्य था। वह ब्रिटेन में कई वर्ष तक निर्वासित रहा और वहाँ फेबियसवाद से प्रभावित हुआ।

मार्क्स का कथन था कि परस्पर प्रतियोगिता और आर्थिक संकटों के कारण पूँजीवादी तथा मध्यवर्ग संकुचित होता जाएगा और मजदूर वर्ग निर्धन, विस्तृत, संगठित तथा क्रांतिकारी बनता जाएगा जिससे शीघ्र ही समाजवाद की स्थापना संभव हो सकेगी। स्थिति इसके विपरीत थी, जिसको बर्नस्टाइन ने स्वीकार किया और इस आधार पर उसने क्रांतिकारी कार्यक्रम के स्थान में तात्कालिक समाजसुधार और समाजवाद की सफलता के लिए वर्गसंघर्ष के स्थान में श्रेणी-सहयोग तथा संसदात्मक और संवैधानिक मार्ग पर जोर दिया। वह मार्क्स के ऐतिहासिक भौतिकवाद के स्थान पर नैतिक तथा अनार्थिक (non-economic) तत्वों के प्रभाव को भी स्वीकार करने लगा। बर्नस्टाइन के विचारों को पुनरावृत्तिवाद को नाम दिया गया। यद्यपि जर्मन मजदूर आंदोलन व्यवहार में सुधारवादी रहा तथापि कार्ल कौटस्की (Karl Kautsky 1854-1938) के नेतृत्व में उसने बर्नस्टाइन के संशोधनों का अस्वीकार करके मार्क्स के विचारों में विश्वास प्रकट किया।

समूहवाद तथा अराजकतावाद

मुख्य लेख: अराजकतावाद

फेबियसवादी और पुनरावृत्तिवादी विचारक समाजवाद की स्थापना के लिए राज्य को आवश्यक समझते हैं। साम्यवादी विचारक भी संक्रमण काल के लिए ऐडम की शक्ति का प्रयोग करना चाहते हैं। अत: इनको समूहवादी (Collectivist) कहा जाता है। अराजकतावादी विचारक भी पूँजीवाद विरोधी और समाजवाद के समर्थक हैं परंतु वे राज्य, राजनीति और धर्म को शोषणव्यवस्था का समर्थक मानते हैं और आरंभ से ही इनका अंत कर देना चाहते हैं। अराजकतावाद जीवन और आचरण का एक सिद्धांत है जो शासनविहीन समाज की कल्पना करता है। यह समाज के ऐक्य की स्थापना शासन और कानून द्वारा नहीं, वरन् व्यक्ति तथा स्थानीय और व्यावसायिक समूहों के स्वतंत्र समझौतों द्वारा करना चाहता है। इस विचार के अनुसार उपर्युक्त समूहों द्वारा उत्पादन, वितरण आदि की अनेक मानव आवश्यकताएँ पूरी हो सकती हैं।

अराजकता शब्द के फ्रांसीसी रूपांतर का प्रयोग पहली बार फ्रांसीसी क्रांति के समय (1789) उन क्रांतिकारियों के लिए किया गया था जो सामंतों की जमीन को जब्त करके किसानों में बाँटना और धनिकों की आय को सीमित करना चाहते थे। तत्पश्चात् सन् 1840 में फ्रांसीसी विचारक प्रुधों (Proudhon) ने अपनी पुस्तक ""संपत्ति क्या है?"" में इस शब्द का प्रयोग किया। सन् 1871 के बाद जब अंतरराष्ट्रीय मजदूर संघ में फूट पड़ी तब मार्क्स के संघवादी विरोधियों को अराजकतावादी कहा गया। आए दिन की भाषा में आतंकवाद और अराजकतावाद पर्यायवाची शब्द हैं; परंतु वस्तुत: दार्शनिक अराजकतावादी केवल राजकीय दमन के विरुद्ध ही आतंक और क्रांतिकारी उपायों के पक्ष में हैं।

संसार का प्रथम अराजकतावादी विचारक चीनी दार्शनिक लाओ त्से (Lao Tse) माना जाता है। प्राचीन यूनान के विचारक अरिस्टीप्पस (Aristippus) और जीनो (Zeno) के दर्शन में भी इन विचारों का पुट है। ब्रिटेन का गोडविन (Godwin) और फ्रांसीसी प्रूधों राज्य और शासनसंस्थाओं-न्यायालय आदि का विरोध करते थे। प्रूधों के अनुसार संपत्ति चोरी का माल है। वह श्रम के आधार पर पण्य विनिमय और लेनदेन में एक प्रतिशत ब्याज की दर के पक्ष में था।

इस संबंध में रूस के तीन अराजकतावादियों के विचार महत्वपूर्ण हैं। बाकूनिन (Bakunin) क्रांतिकारी अराजकतावादी था, पिं्रस क्रॉपोटकिन (Kropotkin 1842-1921) वैज्ञानिक अराजकतावादी तथा लिओ टाल्सटाय (Leo Tolstoy) ईसाई अराजकतावादी। बाकूनिन राज्य को एक आवश्यक दुर्गुण और पिछड़ेपन का चिन्ह तथा संपत्ति और शोषण का पोषक मानता था। राज्य व्यक्ति की स्वाधीनता, उसकी प्रतिभा और क्रयशक्ति, उसके विवेक और नैतिकता को सीमित करता है। इस प्रकार अराजकतावाद व्यक्तिवाद की चरम सीमा है। बाकूनिन क्रांतिकारी मार्ग द्वारा राज्य और उसकी संस्थाओं पुलिस, जेल, न्यायालय आदि का अंत कर स्वतंत्र स्थानीय संस्थाओं की स्थापना के पक्ष में था। ये समुदाय पारस्परिक सहयोग के लिए अपना राष्ट्रीय संघ स्थापित कर सकते थे। रूसो और कांट (Kant) भी इसी प्रकार के स्वतंत्र समुदायों और संघों के समर्थक थे।

क्रॉपोटकिन ने वैज्ञानिक अध्ययन द्वारा यह सिद्ध किया कि समाज का विकास स्वतंत्र सहयोग की ओर है। शिल्पिक उन्नति के कारण मनुष्य बहुत कम श्रम द्वारा अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति कर सकेगा और शेष समय स्वतंत्र जीवन व्यतीत करेगा। मनुष्य स्वभावत: सामाजिक, अत: सहयोगी प्राणी है। स्वतंत्रता और सहयोग की वृद्धि के साथ साथ राज्य की आवश्यकता कम हो जाएगी।

टाल्सटाय भी राज्य और व्यक्तिगत संपत्ति का विरोधी था, परंतु वह हिंसात्मक तथा क्रांतिकारी मार्ग का पोषक नहीं वरन् ईसाई और अंहिसात्मक तरीकों का समर्थक था। वह बुद्धिसंगत ईसाई था, अंधविश्वासी नहीं। गांधीजी के विचारों पर टाल्सटाय की गहरी छाप है।

अराजकतावादियों का विचार है कि मनुष्य स्वभाव से अच्छा है और यदि उसके ऊपर राज्य का नियंत्रण न रहे तो वह समाज में शांतिपूर्वक रह सकता है। राज्य के रहते हुए मनुष्य का बौद्धिक, नैतिक और रागात्मक विकास संभव नहीं। इनके अनुसार राजकीय समाजवाद (समूहवाद) नौकरशाहीवाद और राजकीय पूँजीवाद है। ये युद्ध और सैन्यवाद (militarisrn) के विरोधी और विकेंद्रीकरण के पक्ष में हैं।

अराजकतावाद से बुद्धिजीवी और मजदूर, दोनों ही प्रभावित हुए हैं। अनेक लेखक और दार्शनिकों ने स्वाधीनता संबंधी विचारों को स्वीकार किया है। इनमें जॉन स्टुआर्ट मिल, हरबर्ट स्पेंसर, हैरोल्ड लास्की और बट्रेंड रसल के नाम मुख्य हैं। इस विचारधारा के बुद्धिजीवी समर्थक फ्रांस, स्पेन, इटली, रूस, जर्मनी, संयुक्त राज्य अमरीका आदि अनेक देशों में पाए जाते थे, परंतु फ्रांस और ब्रिटेन के मजदूर आंदोलनों ने भी इन विचारों को संशोधित रूप में स्वीकार किया। इसके फ्रांसीसी स्वरूप का नाम सिंडिकवाद (Syndicalism) और ब्रिटिश का गिल्ड समाजवाद (Guild Socialism) है।

सिंडिकवाद

मुख्य लेख: सिंडिकवाद

सिंडिकवाद और गिल्ड समाजवाद का जन्म उन्नीसवीं शताब्दी के अंत और बीसवीं के आरंभ में हुआ। उस समय तक फेबियस और पुनरावृत्तिवाद में मजदूरों का विश्वास कम होने लगा था। लोकतंत्र मजदूरों की समस्याएँ सुलझाने में असफल रहा, आर्थिक संकट विकट रूप धारण करने लगा और युद्ध की संभावना बढ़ने लगी। साथ ही मजदूरों की संख्या में वृद्धि हुई, उनका संगठन मजबूत हुआ और वे अपनी माँगों को पूरा कराने के लिए बड़े पैमाने पर हड़ताल करने लगे। इन परिस्थितियों में संसदात्मक और संवैधानिक तरीकों के स्थान में मजदूर वर्ग को सक्रिय विरोध के सिद्धांतों की आवश्यकता हुई। इस कमी को उपर्युक्त विचारधाराओं ने पूरा किया।

सिंडिकवाद अन्य समाजवादियों की भाँति समाजवादी व्यवस्था के पक्ष में है परंतु अराजकतावादियों की तरह वह राज्य का अंत कर स्थानीय समुदायों के हाथ में सामाजिक नियंत्रण चाहता है। वह इस नियंत्रण को केवल उत्पादक वर्ग (मजदूर) तक ही सीमित रखना चाहता है। अराजकतावादियों की भाँति सिंडिकावादी भी राष्ट्रीय तथा अंतरराष्ट्रीय संघों के समर्थक और राज्य, राजनीतिक दल, युद्ध और सैन्यवाद के विरोधी हैं।

ध्येय की प्राप्ति का सिंडिकावादी मार्ग क्रांति है, परंतु इस क्रांति के लिए भी वह राजनीतिक दल को अनावश्यक समझता है क्योंकि इसके द्वारा मजदूरों की क्रांतिकारी इच्छा के कमजोर हो जाने का भय है। इसका हड़तालों में अटूट विश्वास है। सोरेल के अनुसार ईसाई पौराणिक पुनरुत्थान (Resurrection) की भाँति यह भी मजदूरों पर जादू का असर करती है और उनके अंदर ऐक्य और क्रांति की भावनाओं को प्रोत्साहन देती है। ये विचारक मशीनों की तोड़फोड़, बाइकाट, पूँजीपति की पैदावार को बदनाम करना, काम टालना आदि के पक्ष में भी हैं। अंत में एक आम हड़ताल द्वारा पूँजीवादी व्यवस्था का अंत कर ये सिंडिकवादी समाज को स्थापना करना चाहते हैं।

इन विचारों से अनेक लातीनी (Latin) देश फ्रांस, इटली, स्पेन, मध्य और दक्षिण अमरीका प्रभावित हुए हैं। इनका असर संयुक्त राज्य अमरीका में भी था, परंतु वहाँ विकेंद्रीकरण पर जोर नहीं दिया गया क्योंकि उस देश में बड़े पैमाने के उद्योग एक वास्तविकता थे। रूसी विचारक प्रिंस क्रॉपोटकिन ने इससे प्रेरणा प्राप्त की और ब्रिटेन ने इसको संशोधित रूप में स्वीकार किया।

गिल्ड (संघ) समाजवाद

मुख्य लेख: श्रेणी समाजवाद

गिल्ड समाजवाद सिंडिकवाद की प्रतिलिपि मात्र नहीं, उसका ब्रिटिश परिस्थितियों में अभ्यनुकूलन (adaptation) है। गिल्ड समाजवाद के ऊपर स्वाधीनता की परंपरा और फेबियसवाद का भी प्रभाव है। इसका नाम यूरोप के मध्यकालीन व्यावसायिक संगठनों से लिया गया है। उस समय से संघ आर्थिक और सामाजिक जीवन पर हावी थे और विभिन्न संघों के प्रतिनिधि नगरों का शासन चलाते थे। गिल्ड समाजवादी उपर्युक्त संघ व्यवस्था से प्रेरणा ग्रहण करते थे। वे राजनीतिक क्षेत्र और उद्योग धंधों में लोकतंत्रात्मक सिद्धांत और स्वायत्तशासन स्थापित करना चाहते थे। ये विचारक उद्योगों के राष्ट्रीयकरण मात्र से संतुष्ट नहीं क्योंकि इससे नौकरशाही का भय है परंतु वे राज्य का अंत भी नहीं करना चाहते। राज्य को अधिक लोकतंत्रात्मक और विकेंद्रित करने के बाद वे उसको देशरक्षा और भोक्ता (consumer) के हितसाधान के लिए रखना चाहते हैं। उनके अनुसार राजकीय संसद् में केवल क्षेत्रीय ही नहीं, व्यावसायिक प्रतिनिधित्व भी होना चाहिए। ये राज्य और उद्योगों पर मजदूरों का नियंत्रण चाहते हैं अत: सिंडिकवाद के निकट हैं परंतु राज्यविरोधी न होने के कारण इनका झुकाव समूहवाद की ओर भी है। ये असफलता के भय से क्रांतिकारी मार्ग को स्वीकार नहीं करते लेकिन केवल वैधानिक मार्ग को भी अपर्याप्त समझते हैं और मजदूरों के सक्रिय आंदोलन, हड़ताल आदि का भी समर्थन करते हैं।

प्रथम महायुद्ध के पूर्व और उसके बीच में इस विचारधारा का प्रभाव बढ़ा। युद्ध के समय मजदूरों ने रक्षा-उद्योगों पर नियंत्रण की माँग की और उसके बाद मजदूर संघों ने स्वयं मकान बनाने के ठेके लिए, परंतु कुछ काल बाद सरकारी सहायता न मिलने पर ये प्रयोग असफल हुए। गिल्ड समाजवाद के प्रमुख समर्थकों में आर्थर पेंटी (Arther Penty), हाब्सन (Hobson), ऑरेंज (Orange) और कोल (Cole) के नाम उल्लेखनीय हैं। ब्रिटेन का मजदूर दल और मजदूर आंदोलन इस विचारधारा से विशेष प्रभावित हुए हैं।

साम्यवाद

पेरिस कम्यून के चुनाव का जश्न मनाते लोग (२८ मार्च १८७१); समाजवादी विचारों को सबसे पहले चरितार्थ करने का काम पेरिस कम्यून ने ही किया।

मुख्य लेख साम्यवाद देखिये।

मार्क्स ने सन् 1848 में अपने "साम्यवादी घोषणापत्र" में जिस क्रांति की भविष्यवाणी की थी वह अंशत: सत्य हुई और उस वर्ष और उसके बाद कई वर्ष तक यूरोप में क्रांति की ज्वाला फैलती रही; परंतु जिस समाजवादी व्यवस्था की उसको आशा थी वह स्थापित न हो सकी, प्रत्युत क्रांतियाँ दबा दी गईं और पतन के स्थान में पूँजीवाद का विकास हुआ। फ्रांस और प्रशा के बीच युद्ध (1871) के समय पराजय के कारण पेरिस में प्रथम समाजवादी शासन (पेरिस कम्यून) स्थापित हुआ परंतु कुछ ही दिनों में उसको भी दबा दिया गया। पेरिस कम्यून की प्रतिक्रिया हुई और मजदूर आंदोलनों का दमन किया जाने लगा जिसके फलस्वरूप मार्क्स द्वारा स्थापित अंतरराष्ट्रीय मजदूर संघ भी तितर बितर हो गया। मजदूर आंदोलनों के सामने प्रश्न था कि वे समाजवाद की स्थापना के लिए क्रांतिकारी मार्ग अपनाएँ अथवा सुधारवादी मार्ग ग्रहण करें। इन परिस्थितियों में कतिपय सुधारवादी विचारधाराओं का जन्म हुआ। इनमें ईसाई समाजवाद, फेबियसवाद और पुनरावृत्तिवाद मुख्य हैं।

ईसाई समाजवाद

मुख्य लेख: ईसाई समाजवाद

ईसाई समाजवाद के मुख्य प्रचारक ब्रिटेन के जान मेलकम लुडलो (John Malcohm Luldow 1821-1911), फ्रांस के बिशप क्लाड फॉशे (Claude Fauchet) और जर्मनी के विक्टर आइमे ह्यूबर (Victor Aime Huber) हैं। पूँजीवादी शोषण द्वारा मजदूरों की दुर्दशा देखकर इन विचारकों ने इस व्यवस्था की आलोचना की और मजदूरों में सहकारी आंदोलन का प्रचार किया। उन्होंने उत्पादक तथा भोक्ता सहकारी समितियों की स्थापना भी की। ईसाई समाजवाद का प्रभाव ब्रिटेन, फ्रांस और जर्मनी के अतिरिक्त आस्ट्रिया तथा बेल्जियम में भी था।

शुक्रवार, 27 दिसंबर 2013

समाजवादी चिंतन के बदलते रूप ; परिवार में समाजवाद

समाजवादी चिंतन के बदलते रूप ; परिवार में समाजवाद 
(अखबारोंकी कतरनों से)

तस्वीरों की जुबानी, 'नेताजी' के 'राजनीतिक कुनबे' की दिलचस्प कहानी
(दैनिक भाष्कर से साभार; "तो आइए जानते हैं देश के सबसे बड़े राजनीतिक कुनबे के सदस्यों की पॉलिटिकल कुंडली' साथ में...आगरा से सन्मय प्रकाश,लखनऊ से अनुराग तिवारी") ने ये आलेख तैयार किया है इसमें एक परिवार बड़ा होता दिखाई दे रहा है, मेरा मानना है कि नेता जी ने समाजवाद के लिए जितना किया है सम्भवतः वैचारिक रूप से किसी ने नहीं किया होगा। ऐसा कहने के पीछे नेता जी पर लग रहे परिवारवाद का सवाल उन उपलब्द्धियों को पी जाना है - डॉ लाल रत्नाकर 

तस्वीरों की जुबानी, 'नेताजी' के 'राजनीतिक कुनबे' की दिलचस्प कहानी
सपा सुप्रीमो मुलायम सिंह यादव आज 75 साल के हो गए। देश की राजनीति में पूरे दमखम के साथ रहने वाले मुलायम एक जमाने में गांधी परिवार के परिवारवाद का विरोध करते रहे हैं। लेकिन आज उन पर ही राजनीति में परिवारवाद को बढावा देने का आरोप है। आज यूपी की कमान सपा प्रमुख मुलायम सिंह के पुत्र अखिलेश के हाथों में है। सिर्फ अखिलेश ही नहीं, मुलायम के परिवार की तीसरी पीढ़ी का भी अब राजनीति में दखल हो चुका है। यही नहीं, मुलायम परिवार की महिलाएं भी राजनीति में आगे बढ़ रही हैं। 
देश के इस सबसे बड़े राजनीतिक कुनबे से कुल 13 लोग क्रमश: मुलायम सिंह यादव, अखिलेश यादव, डिंपल यादव, शिवपाल यादव, राम गोपाल यादव, अंशुल यादव, प्रेमलता यादव, अरविंद यादव, तेज प्रताप सिंह यादव, सरला यादव, अंकुर यादव, धर्मेंद्र यादव और अक्षय यादव राजनीतिक धरातल पर जोर-आजमाइश कर रहे हैं।
भारत की राजनीति में परिवारवाद का बोलबाला अब काफी बढ़ गया है। शायद ही कोई पॉलिटिकल पार्टी ऐसी हो, जिसमें परिवारवाद और वंशवाद की बेल दिखाई नहीं पड़ती हो। कांग्रेस से लेकर तमाम क्षेत्रीय दलों में परिवारवाद की जड़ें काफी मजबूत हो गई हैं। काडर आधारित दलों जैसे कम्युनिस्ट पार्टियों और भाजपा में परिवारवाद भले न दिखाई पड़े, पर दक्षिण की क्षेत्रीय पार्टियां हों या उत्तर भारत के अनेकानेक दल, सभी में परिवारवाद और वंशवाद मजबूत होता चला गया है।
परिवारवाद को लोकतंत्र के लिए कभी अच्छा नहीं समझा गया, लेकिन तथ्य यह है कि कांग्रेस में ही इस प्रवृत्ति की शुरुआत हुई और धीरे-धीरे यह संक्रामक हो गई। कांग्रेस के अलावा यह प्रवृत्ति समाजवादी कहे जाने वाले नेताओं और पार्टियों में भी दिखलाई पड़ती है। लालू हों या मुलायम या रामविलास पासवान, कोई भी राजनीति में कोई भी परिवारवाद और वंशवाद को आगे बढ़ाने के मोह से बच नहीं पाए। 
तस्वीरों की जुबानी, 'नेताजी' के 'राजनीतिक कुनबे' की दिलचस्प कहानी
मुलायम सिंह यादव
राजनीति में परिवारवाद को बढ़ावा देने की शुरुआत वैसे तो पं. जवाहरलाल नेहरू ने ही कर दी थी, पर लोहिया के चेले कहे जाने वाले मुलायम सिंह ने इसे खूब आगे बढ़ाया। पिछले कुछ वर्षों में जब भी देश में तीसरे मोर्चे की चर्चा होती है, मुलायम सिंह यादव का नाम सबसे पहले लिया जाता है। पेशे से शिक्षक रहे मुलायम सिंह यादव के लिए शिक्षा के क्षेत्र ने राजनीतिक द्वार भी खोले।
मुलायम सिंह यादव का जन्म उत्तर प्रदेश के इटावा जिले के सैफई में 22 नवम्बर, 1939 को हुआ था। इनके पिता का नाम सुघर सिंह और माता का नाम मूर्ति देवी है। पांच भाइयों में तीसरे नंबर के मुलायम सिंह के दो विवाह हुए हैं। पहली शादी मालती देवी के साथ हुई। उनके निधन (2003) के पश्चात उन्होंने साधना गुप्ता से विवाह किया। अखिलेश यादव मालती देवी के पुत्र हैं, जबकि मुलायम सिंह यादव के छोटे बेटे प्रतीक यादव को उनकी दूसरी पत्नी ने जन्म दिया है। वर्ष 1954 में पंद्रह साल की किशोरावस्था में ही मुलायम के राजनीतिक तेवर उस वक़्त देखने को मिले, जब उन्होंने डॉ. राम मनोहर लोहिया के आह्वान पर 'नहर रेट आंदोलन' में भाग लिया और पहली बार जेल गए। 
डॉ. लोहिया ने फर्रुखाबाद में बढ़े हुए नहर रेट के विरुद्ध आंदोलन किया था और जनता से बढ़े हुए टैक्स न चुकाने की अपील की थी। इस आंदोलन में हजारों सत्याग्रही गिरफ्तार हुए। इनमें मुलायम सिंह यादव भी शामिल थे। इसके बाद वे 28 वर्ष की आयु में 1967 में संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के टिकट पर पहली बार जसवंत नगर क्षेत्र से विधानसभा सदस्य चुने गये। इसके बाद तो वे 1974, 77, 1985, 89, 1991, 93, 96 और 2004 और 2007 में उत्तर प्रदेश विधानसभा सदस्य चुने गए। इस बीच वे 1982 से 1985 तक उत्तर प्रदेश विधान परिषद् के सदस्य और नेता विरोधी दल रहे। पहली बार 1977-78 में राम नरेश यादव और बनारसी दास के मुख्यमंत्रित्व काल में सहकारिता एवं पशुपालन मंत्री बनाए गए। इसके बाद से ही वे करीबी लोगों के बीच मंत्री जी के नाम से जाने जाने लगे।
तस्वीरों की जुबानी, 'नेताजी' के 'राजनीतिक कुनबे' की दिलचस्प कहानी
मुलायम सिंह यादव पहली बार 5 दिसंबर, 1989 को 53 वर्ष की उम्र में भारतीय जनता पार्टी के समर्थन से उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बने। लेकिन बीजेपी की रामजन्मभूमि यात्रा के दौरान उनके और भारतीय जनता पार्टी के संबंधों में दरार पैदा हो गई। इसका कारण था मुलायम सिंह यादव द्वारा आडवाणी की इस यात्रा को सांप्रदायिक करार दिया जाना और इसे अयोध्या नहीं पहुंचने देने की जिद पर अड़ जाना। 2 नवंबर, 1990 को अयोध्या में बेकाबू हो गए कारसेवकों पर यूपी पुलिस को गोली चलने का आदेश देकर मुलायम विवादों में आ गए। इस फायरिंग में कई कारसेवक मारे गए थे। हालांकि, अभी हाल में ही उन्होंने अपने इस फैसले पर अफ़सोस भी जताया है। 
मुलायम सिंह यादव 1989 से 1991 तक, 1993 से 1995 तक और साल 2003 से 2007 तक तीन बार उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री रहे चुके हैं। वर्ष 2013 में एक बार फिर जब उनके मुख्यमंत्री बनने का मौका आया तो वे केंद्र सरकार में अपना महत्वपूर्ण रोल देख रहे थे और इसी वजह से उन्होंने अपने बेटे अखिलेश यादव के हाथों में उत्तर प्रदेश की कमान सौंप दी। वैसे, मुलायम 1996 से ही केंद्र की राजनीति में सक्रिय हो गए थे और उन्होंने अपनी महत्ता भी अन्य राजनैतिक पार्टियों को समझा दी थी। मुलायम सिंह यादव 1996, 1998, 1999, 2004 और 2009 में लोकसभा के सदस्य चुने गये।

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मुलायम को 1977-78 में जब पहली बार मंत्री बनाया गया तो उन्होंने एक क्रांतिकारी कदम उठाया था। इससे न केवल प्रदेश को फायदा हुआ, बल्कि समाजवादी पार्टी में परिवारवाद की नींव भी उसी समय पड़ी। बतौर उत्तर प्रदेश के सहकारिता एवं पशुपालन मंत्री मुलायम सिंह यादव ने पहले किसानों को एक लाख क्विंटल और उसके दूसरे साल 2।60 लाख क्विंटल बीज बंटवाए। उनके इसी कार्यकाल में उत्तर प्रदेश में डेयरी उत्पादन बढ़ा। मुलायम ने समाजवाद के साथ जो शुरुआत की, वह आगे चलकर परिवारवाद को बढ़ावा देने का कारण बना। मुलायम के इस सहकारिता आंदोलन के चलते उनके सबसे छोटे भाई शिवपाल को राजनीति में आने का रास्ता मिला। 
सहकारी क्षेत्र में अपनी पैठ बनाते हुए 1988 में शिवपाल पहली बार इटावा के जिला सहकारी बैंक के अध्यक्ष चुने गए। 13 वर्षों तक सहकारी बैंक का अध्यक्ष रहने के बाद 1991 में दो वर्षों के लिए यह पद शिवपाल से दूर रहा और वह दोबारा 1993 में सहकारी बैंक के अध्यक्ष बने। शिवपाल पिछले 20 वर्षों से इस पद पर बने हुए हैं। शिवपाल की पत्नी सरला भी 2013 में जिला सहकारी बैंक की राज्य प्रतिनिधि के रूप में लगातार दूसरी बार चुनी गई हैं। यही नहीं शिवपाल के बेटे आदित्य यादव उर्फ अंकुर को भी उत्तर प्रदेश प्रादेशिक को-ऑपरेटिव फेडरेशन का निर्विरोध अध्यक्ष चुना गया है।
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मुलायम के सिर पर वर्ष 1992  में एक और सेहरा बंधा जब 5 नवम्बर, 1992 को लखनऊ में समाजवादी पार्टी की स्थापना की गई। भारत के राजनैतिक इतिहास में यह एक महत्वपूर्ण अध्याय था, क्योंकि लगभग डेढ़-दो दशकों से हाशिये पर जा चुके समाजवादी आंदोलन को मुलायम ने पुनर्जीवित किया था। इसके अगले वर्ष ही 1993 में हुए विधानसभा चुनावों में समाजवादी पार्टी का गठबंधन बीएसपी से हुआ। हालांकि, इस गठजोड़ को पूर्ण बहुमत नहीं मिला, लेकिन जनता दल और कांग्रेस के समर्थन से उन्होंने दोबारा मुख्यमंत्री पद की शपथ ली। 
इस बार उत्तराखंड के निर्माण को लेकर भी उन्हें कई विवादों का सामना करना पड़ा। अलग राज्य की मांग कर रहे आंदोलनकारी 1 अक्टूबर, 1994 को दिल्ली में धरना-प्रदर्शन के लिए जा रहे थे, उस दौरान यूपी पुलिस ने मुज़फ्फरनगर जिले के रामपुर तिराहे के पास आंदोलनकारियों पर गोली चला दी। इसमें आंदोलनकारियों की मौत हो गई। साथ ही, पुलिस पर कुछ महिलाओं के साथ छेड़खानी और बलात्कार के आरोप भी लगे। इससे पूर्व मुलायम सिंह यादव उत्तर प्रदेश लोकदल और उत्तर प्रदेश जनता दल के अध्यक्ष भी रहे। मुलायम सिंह यादव 1996 से 1998 तक एचडी देवेगौड़ा और इंद्र कुमार गुजराल की सरकारों में भारत के रक्षामंत्री के पद पर भी रहे।

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कुछ अनछुए पहलू...
मशहूर पत्रकार स्वर्गीय अलोक तोमर ने अपने संस्मरण में लगभग 42 वर्ष पुरानी घटना का जिक्र करते हुए एक जगह लिखा है, "उन दिनों बलरई में सहकारी बैंक खुला। ये चालीस साल पुरानी बात है। मास्टर मुलायम सिंह चुनाव में खड़े हुए और इलाके के बहुत सारे अध्यापकों और छात्रों के माता-पिताओं को पांच-पांच रुपए में सदस्य बना कर चुनाव भी जीत गए। उनके साथ बैंक के निदेशक पद का चुनाव मेरे स्वर्गीय ताऊ जी ठाकुर ज्ञान सिंह भी जीते थे। चुनाव के बाद जो जलसा हो रहा था, उसमें गोली चल गई। मुलायम सिंह यादव और मेरे ताऊ जी बात कर रहे थे और छोटे कद के थे। गोली चलाई तो मुलायम सिंह पर गई थी, मगर पीछे खड़े एक लंबे आदमी को लगी जो वहीं ढेर हो गया।"
इसी तरह एक और दिलचस्प किस्सा मुलायम सिंह यादव के बारे में सुनने को मिलता है कि वर्ष 1960 में मैनपुरी के करहल स्थित जैन इंटर कॉलेज में एक कवि सम्मेलन चल रहा था। जैसे ही उस समय के विख्यात कवि दामोदर स्वरूप 'विद्रोही' ने अपनी चर्चित रचना 'दिल्ली की गद्दी सावधान' सुनानी शुरू की, एक पुलिस इंस्पेक्टर ने उनसे माइक छीन कर कहा कि सरकार के खिलाफ कविताएं पढना बंद करो। इसी बीच उसी समय एक लड़का बड़ी फुर्ती से मंच पर चढ़ा और उसने इंस्पेक्टर को मंच पर ही उठाकर पटक दिया। बाद में लोगों ने पूछा कि ये यह साहसी नौजवान कौन था तो पता चला कि वह मुलायम सिंह यादव हैं। बाद में जब मुलायम सिंह यादव उत्तर प्रदेश के मुख्यमन्त्री बने तो उन्होंने दामोदर स्वरूप 'विद्रोही' को उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान का साहित्य भूषण सम्मान से नवाजा।
मुलायम सिंह कब किससे नाराज हो जाएं और कब किसे समर्थन दे बैठें, शायद उन्हें भी इसका अंदाजा नहीं रहता। पिछले राष्ट्रपति चुनाव में उन्होंने यूपीए समर्थित उम्मीदवार प्रणब मुखर्जी को समर्थन देने का वादा किया, लेकिन वोटिंग के समय उन्होंने उनके विरोधी पीए संगमा के नाम के आगे निशान लगा दिया। इसके चलते उनका मत रद्द हो गया। राजनीतिक जानकार कहते हैं कि इससे मुलायम सिंह यादव ने दोनों पक्षों को साध लिया।
तस्वीरों की जुबानी, 'नेताजी' के 'राजनीतिक कुनबे' की दिलचस्प कहानी
अखिलेश यादव 
पिछले साल हुए उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनावों में एक अंडरकरंट चल रही थी, जिसे बड़े-बड़े प्रकांड राजनीतिज्ञ भी नहीं समझ सके। जब चुनाव परिणाम घोषित हुए, तब कहीं जाकर लोगों को इस अंडरकरंट का अंदाजा लगा। उस वक़्त मीडिया ने भी कांग्रेस के युवराज की जनसभाओं में जुट रही भीड़ पर अपना ध्यान केंद्रित कर रखा था। लेकिन एक शख्स चुपचाप पूरे प्रदेश में साइकिल यात्रा और रथयात्रा के जरिये लोगों को अपने से जोड़ रहा था। 
चुनाव परिणाम घोषित हुए और तेजी से बदलते घटनाक्रम में इस युवा को प्रदेश के मुख्यमंत्री के का ताज पहना दिया गया। अखिलेश यादव 15 मार्च, 2012 को उत्तर प्रदेश के सबसे कम उम्र के मुख्यमंत्री बने। उनके मुख्यमंत्री बनने के वक़्त एक उनके विरोधियों और छिपी चुनौतियों की एक अलग धारा बह रही थी, जिसे समझने में खुद अखिलेश नाकाम रहे। नतीजा आज प्रदेश में हो रही उथल-पुथल के रूप में सामने है।
समाजवादी पार्टी के जनक मुलायम सिंह यादव के पुत्र अखिलेश यादव का जन्म 1 जुलाई, 1973 को इटावा जिले के सैफई में हुआ था। मां मालती देवी का बचपन में ही देहांत हो गया था। अखिलेश ने प्राथमिक शिक्षा इटावा के सेंट मेरी स्कूल में पूरी की। आगे की पढाई के लिए उन्हें राजस्थान में धौलपुर स्थित सैनिक स्कूल भेजा गया। वहां से 12वीं की परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद अखिलेश ने मैसूर के एसजे कॉलेज ऑफ इंजीनियरिंग से बैचलर ऑफ़ इंजीनियरिंग की डिग्री ली। 
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इसके बाद वे एनवायरनमेंटल इंजीनियरिंग में मास्टर्स करने ऑस्ट्रेलिया चले गए। सिडनी यूनिवर्सिटी से पढ़ाई खत्म करने के बाद अखिलेश वापस आकर अपने पिता मुलायम सिंह यादव के साथ राजनीति में जुड़ गये। अखिलेश की शादी डिंपल यादव से 24 नवम्बर, 1999 को हुई। आज उनके तीन बच्चे अदिति, अर्जुन और टीना हैं। इनमें अर्जुन और टीना जुड़वां भाई-बहन हैं।
लोकसभा की वेबसाइट के अनुसार, अखिलेश ने अपने आपको राजनीतिज्ञ के अलावा किसान, इंजीनियर और समाजसेवी बताया है। अखिलेश वर्ष 2000 में 27 वर्ष की आयु में पहली बार लोकसभा के सदस्य बने थे। उनके पिता मुलायम सिंह यादव ने उस समय कन्नौज और मैनपुरी दोनों जगहों से लोकसभा का चुनाव लड़ा था और दोनों ही जगहों से विजयी भी रहे थे। बाद में मुलायम सिंह ने कन्नौज की सीट खाली कर दी और उपचुनाव में वहां से अखिलेश को टिकट दिया गया। 
अखिलेश कन्नौज से विजयी होकर लोकसभा पहुंचे। तब से अखिलेश 3 बार लोकसभा सदस्य रह चुके हैं। वर्ष 2009 में अखिलेश ने भी दो जगहों कन्नौज और फिरोजाबाद से लोकसभा चुनाव लड़ा। वे भी दोनों जगहों से विजयी रहे। फिरोजाबाद की सीट उन्होंने अपनी पत्नी डिंपल यादव के लिए खाली कर दी। लेकिन अफ़सोस कि इस बार यह रणनीति काम न आई और डिंपल फिल्म स्टार और कांग्रेस के उम्मीदवार राज बब्बर से चुनाव हार गईं।
 
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वर्ष 2013 के विधानसभा चुनावों के लिए अखिलेश ने काफी पहले से तैयारी शुरू कर दी थी। इसके लिए उन्होंने 6 महीनों में 10 हजार किलोमीटर से ज्यादा की यात्रा की और  800 रैलियों को संबोधित किया। उनके प्रोफेशनल नजरिये के चलते सपा ने चुनावों में ज्यादातर प्रोफेशनली क्वालिफाइड लोगों को टिकट दिया ताकि, पार्टी की पहले वाली इमेज को बदला जा सके। इसी का नतीजा था कि सपा पूर्ण बहुमत के साथ प्रदेश में सत्ता में वापस आई। इस बदलाव को परखते हुए सपा सुप्रीमो मुलायम सिंह ने भी मुख्यमंत्री के लिए अखिलेश का नाम प्रस्तावित किया, जो थोड़ी-बहुत अंदरूनी कशमकश के बाद सभी  ने स्वीकार कर लिया। मंत्रिमंडल में भी अखिलेश ने नयी और पुरानी, दोनों पीढ़ियों का समावेश किया।
अखिलेश यादव हालांकि अपने पिता मुलायम सिंह की छत्र-छाया में ही शासन चला रहे हैं, लेकिन उनके कुछ फैसले उनके लिए मुसीबत का सबब भी बन गए और उनकी अपरिपक्वता को भी दर्शा गए। उन्होंने डीपी यादव जैसे दागी नेताओं को पार्टी से दूर रखने का फैसला लिया तो उनकी चारो ओर सराहना हुई, लेकिन जब मंत्रिमंडल का गठन हुआ तो कई दागी चेहरों के शामिल हो जाने चलते उन्हें आलोचनाओं का भी सामना करना पड़ा। हाल-फिलहाल में नोएडा के एसडीएम दुर्गा शक्ति के निलंबन का मामला भी सरकार और पार्टी, दोनों के लिए गले का फांस बन चुका है।
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कुछ रोचक पहलू
1. अखिलेश के घर का नाम टीपू है। बचपन में जब वे सेंट मेरी स्कूल में दाखिले के लिए पहुंचे तो उनके साथ न तो पिता मुलायम थे और न ही चाचा शिवपाल। उनके साथ पारिवारिक मित्र अवधबिहारी बाजपेयी और वकील गए थे। जब वहां अखिलेश से नाम पूछा गया तो उन्होंने अपना नाम 'टीपू' बता दिया। जब स्कूल वालों ने कहा कि यह नाम स्कूल में नहीं लिखा जा सकता तो वहीं उनका नाम टीपू से अखिलेश हो गया।
2. एक सभा के दौरान उत्तर प्रदेश में खेलों के विकास के लिए राज्य मंत्री दर्जा प्राप्त रामवृक्ष यादव ने बताया कि अखिलेश यादव फ़ुटबाल बहुत अच्छा खेलते हैं। बचपन में फ़ुटबाल खेलते समय नाक पर फ़ुटबाल लग गया था। तभी से उनकी नाक टेढ़ी हो गई।
3. मुख्यमंत्री बनने के बाद अखिलेश के कैंप ऑफिस का स्टाफ उनके नाम आने वाले प्रेम पत्रों को लेकर काफी परेशान रहा। अधिकतर पत्रों में शादी का प्रस्ताव होता था और शादी न करने पर आत्महत्या की धमकी होती थी।
4. चुनाव प्रचार के दौरान अखिलेश की पजेरो गाडी में उनकी बीएमडब्ल्यू साइकिल रखी होती थी। इसका इस्तेमाल वो साइकिल रैली में करते थे।
5. पार्टी की छवि के उलट अखिलेश टेक्नोलॉजी को पसंद करते हैं। उनके पास चुनाव प्रचार के दौरान दो-दो ब्लैकबेरी फोन थे और वे आईपैड पर पार्टी के प्रचार अभियान का वीडियो देखते थे।
6. सरकार बनाने के बाद से उनके पिता और सपा सुप्रीमो उनकी कार्यशैली को लेकर कई बार नाराजगी जता चुके हैं।
7. अखिलेश के मुख्यमंत्री बनने के बाद विदेशी मीडिया भी उनके व्यक्तित्व को लेकर काफी उत्साहित था। प्रदेश में निवेश के संभावनाओं को देखते हुए कई देशों का प्रतिनिधि मंडल उनसे लखनऊ और दिल्ली में मुलाक़ात कर चुका है।
8. अखिलेश यादव के 18 महीने के कार्यकाल में 2000 अधिकारियों का ट्रांसफर हो चुका है। गोरखपुर के एसएसपी रहे शलभ माथुर को तो 6 महीने के अंदर 4 बार ट्रांसफऱ ऑर्डर मिल चुके हैं।
9. मुख्यमंत्री बनने के बाद एक इंटरव्यू में अखिलेश यादव देश का प्रधानमंत्री बनने की इच्छा जाहिर कर चुके हैं।
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डिंपल यादव 
यूपी के सीएम अखिलेश यादव की पत्नी और कन्नौज से चुनी गईं देश की पहली निर्विरोध सांसद डिंपल यादव किसी परिचय की मोहताज नहीं हैं। 1978 में पुणे में आर्मी कर्नल एससी रावत के घर जन्‍मीं डिंपल की शुरुआती पढ़ाई और पालन-पोषण पुणे, भटिंडा और अंडमान निकोबार में हुआ। इंटरमीडिएट के बाद डिंपल यादव ने लखनऊ विश्‍वविद्यालय से ह्यूमेनिटीज़ में स्नातक किया। यहीं अखिलेश यादव से उनकी मित्रता हुई। दोनों की मित्रता कब प्यार में बदल गई, पता ही नहीं चला। अखिलेश मरीन इंजीनियरिंग पूरी करने के बाद ऑस्ट्रेलिया से लौटे तो दोनों ने शादी कर ली। विवाह के बाद डिंपल गृहिणी बन गईं और अखिलेश अपने पिता मुलायम सिंह यादव की समाजवादी पार्टी में शामिल होकर राजनीति में सक्रिय हो गये। 
डिंपल और अखिलेश के तीन बच्‍चे हैं - अदिति, अर्जुन और टीना। इनमें अर्जुन और टीना जुड़वां हैं। उनके पिता कर्नल रावत उत्तराखंड के उधमसिंह नगर के मूल निवासी हैं। वर्तमान में वहीं रह रहे हैं। डिंपल की दो बहनें हैं। कर्नल रावत के मुताबिक, शादी से पहले वह काफी बोल्ड हुआ करती थीं। अपनी बात बेबाकी से रखने वाली डिंपल कभी किसी बात को कहने में हिचकती नहीं थीं। अब शादी के बाद बेहद शांत स्वभाव की हो चुकीं डिंपल स्पोर्ट्स में काफी रुचि रखती हैं। घुड़सवारी उनको बेहद पसंद है। इसकी वजह से आज भी पहाड़ों पर जब जाने का मौका मिलता है तो घुड़सवारी ज़रूर करती हैं। 
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डिंपल की कॉलेज के दिनों की खास दोस्त लखनऊ में रही साक्षी ने दैनिक भास्कर.कॉम से खास बातचीत में कॉलेज के दिनों को याद करते हुए बताया कि उनमें किसी भी नई वस्तु और सोच को ग्रहण करने की क्षमता अपार है। वह किसी भी नई जगह पर जल्द ही वहां के वातावरण और हालत को ग्रहण कर लेती थीं। कॉलेज के दिनों में पढने- लिखने के साथ-साथ घूमने-फिरने का भी शौक था। कभी उनको इसके लिए डांट भी खूब पड़ती थी। डिंपल किसी भी दोस्त की मदद के लिए हमेशा खड़ी रहती थीं। शायद पिता आर्मी में थे और कई जगह वह रह चुकी थीं, इसका भी असर उनमें दिखाई पड़ता था। 
डिंपल और साक्षी में पहले जितनी मुलाकातें हो जाती थीं, उतनी अब नहीं हो पाती हैं। डिंपल को घर और बाहर, दोनों जगह का काम संभालना पड़ता है। इसलिए उनकी व्यस्तता पहले से ज्यादा बढ़ गई है। वह भले ही सांसद और सीएम की पत्नी हों, लेकिन उनके स्वभाव में कोई फर्क नहीं आया है। वह आज भी उसी तरह हैं, जैसी कॉलेज के दिनों में थीं। डिंपल के इस दोस्त ने बातों-बातों में चौंकानी वाली एक बात बताई। उनके मुताबिक, डिंपल यादव को मुलायम सिंह यादव की दूसरी पत्नी और प्रतीक की मां से कुछ खास लगाव नहीं है। प्रतीक और उसकी पत्नी से ठीक-ठाक रिश्ते रहते हैं। नेताजी की लाडली बहू डिंपल उनका ख्याल खूब रखती हैं। भले ही पार्टी नेता जी और अखिलेश यादव चला रहे हैं, पर फैमिली बिज़नेस वही देखती हैं।
तस्वीरों की जुबानी, 'नेताजी' के 'राजनीतिक कुनबे' की दिलचस्प कहानी
12 जून, 2012 को डिंपल यादव को संसद का टिकट मिल गया। अब उनकी असली राजनीतिक पारी शुरू हो चुकी थी। हालांकि, इससे पहले भी उन्‍होंने राजनीति में अपनी किस्मत फिरोजाबाद संसदीय सीट से आजमायी थी। वह सीट भी अखिलेश ने छोड़ी थी। इस पर फ़िल्म अभिनेता राज बब्‍बर जीते थे। खैर, पिछली हार जैसी भी रही हो, इस बार की जीत किसी बड़ी जीत से कम नहीं थी, क्‍योंकि किसी भी पार्टी ने उनके विरुद्ध प्रत्‍याशी उतारने की हिम्‍मत नहीं की और वह निर्विरोध जीतीं। 
डिंपल यादव ने जनता के समक्ष पारदर्शिता दिखाते हुए पति के मुख्‍यमंत्री बनते ही अपनी संपत्ति की घोषणा की। यही नहीं, राज्‍य सरकार की आधिकारिक वेबसाइट पर अपनी संपत्ति का ब्‍योरा अपलोड किया। इसके अनुसार, मार्च 2012 में उनके पास 59.76 लाख रुपए के जेवर, लखनऊ में 41 लाख और 39.75 लाख रुपए की संपत्तियां हैं। साथ ही, उनके बैंक अकाउंट में 79.66 लाख और दूसरे अकाउंट में 2 लाख रुपए थे। साथ ही, उन्‍होंने 15 लाख रुपए का निवेश किया है। डिंपल यादव प्रदेश की पहली ऐसी महिला हैं, जिनके ख़िलाफ़ चुनाव लड़ने के लिए कोई तैयार नहीं हुआ। यह तथ्य भी विशिष्टता लिए हुए है कि वह ऐसी सांसद हैं जिनके पति मुख्यमंत्री हैं।

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डिंपल को एक राजनेता से ज्यादा सीएम की पत्नी के रूप में जाना जाता है। उनको राजनीति विरासत में मिली है। पति की छोड़ी हुई सीट पर सांसद बनी हैं। वह न तो कोई राजनैतिक बयान देती हैं, न पार्टी मीटिंग में जाती हैं। हां, संसद सत्र के दौरान ससुर मुलायम के साथ ज़रूर दिख जाती हैं। डिंपल को बतौर पत्नी या मां के रूप में देखा जाये तो वो उसमें खरी उतरती हैं। अखिलेश भी स्वीकार करते हैं कि वह उनका और बच्चों का भरपूर ख्याल रखती हैं। एक कुशल गृहिणी की तरह पूरे परिवार का ख्याल रखती हैं। डिंपल सुबह मॉर्निंग वॉक और योगा से दिनचर्या की शुरुआत करती हैं। बच्चों को तैयार करके स्कूल भेजती हैं। उसके बाद अपने निर्देशन में घर का नाश्ता तैयार करवाती हैं। अखिलेश और नेताजी सहित पूरा परिवार एक साथ नाश्ता और खाना खाता है। चाईनीज़ खाने की शौकीन डिंपल घर से बाहर कम ही जा पाती हैं, लेकिन देवरानी के साथ किचन में ही हर शौक पूरा करती हैं। वह हर साल अपने मम्मी-पापा से मिलने जरूर जाती हैं।
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रामगोपाल यादव
प्रो. रामगोपाल यादव समाजवादी पार्टी अध्यक्ष मुलायम सिंह यादव के छोटे भाई हैं। पेशे से अध्यापक रहे श्री यादव वर्तमान में उत्तर प्रदेश से राज्यसभा के सांसद हैं। वह मुलायम सिंह यादव के थिंक टैंक भी कहे जाते हैं। यादव परिवार में सबसे पढ़े-लिखे केवल प्रो. रामगोपाल यादव ही हैं। प्रो. रामगोपाल यादव समाजवादी पार्टी के राष्ट्रींय महासचिव और राज्य सभा सांसद हैं। वह पार्टी में मजबूत हैसियत रखते हैं। हालांकि, उन्हें राजनीति में लाने का श्रेय बड़े भाई मुलायम सिंह यादव को जाता है। रामगोपाल यादव ने अपने भाई शिवपाल यादव के साथ 1988 में राजनीति में कदम रखा। वह इटावा के बसरेहर ब्लॉक प्रमुख का चुनाव जीते। इसके बाद उन्होंने पीछे मुड़कर नहीं देखा। 
प्रो. रामगोपाल ने वर्ष 1989 में जिला परिषद का चुनाव जीतकर अध्यक्ष की कुर्सी थामी। वर्ष 1992 में राज्यसभा के सदस्ये बने। इसके बाद रामगोपाल लगातार राज्यसभा पहुंच रहे हैं। अब भी राज्यसभा के सदस्य हैं। वह मुलायम सिंह यादव के राजनैतिक सलाहकार भी रह चुके हैं। हाल ही में आईएएस दुर्गा शक्ति नागपाल के मामले में केंद्र सरकार द्वारा रिपोर्ट मांगने पर रामगोपाल यादव ने तो यहां तक कह दिया कि यूपी को आईएएस की जरूरत ही नहीं है। इस बयान को विश्लेषक यूपी सरकार और समाजवादी पार्टी में उनकी बड़ी हैसियत के रूप में लेते हैं।
 
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प्रो. रामगोपाल यादव को जन्मर 29 जून, 1946 को इटावा के सैफई में हुआ। उनका विवाह 4 मई, 1962 को फूलन देवी से हुआ। उनके तीन बेटे और एक बेटी है। बेहद गरीब परिवार में पैदा हुए प्रो. रामगोपाल ने काफी मेहनत कर पढ़ाई की। परिवार में वह एकमात्र सबसे ज्यादा पढ़े-लिखे सदस्य हैं। रामगोपाल यादव ने एमएससी (भौतिकी), एमए (राजनीति विज्ञान) किया। बाद में उन्होंने ‘डॉ. लोहिया का सा‍माजिक और राजनीतिक दर्शन’ विषय पर शोध किया और पीएचडी उपाधि ली। 
उनकी उच्च शिक्षा कानपुर विश्वविद्यालय और आगरा विश्वविद्यालय में पूरी हुई। बेहद गरीबी में पले-बढ़े प्रो. रामगोपाल यादव की संपत्ति नेशनल इलेक्शन वॉच की रिपोर्ट के अनुसार 1.28 करोड़ रुपए से अधिक है। इनमें से 98 लाख रुपए की संपत्ति जमीन-जायदाद व भवन के रूप में है, जबकि करीब 22 लाख रुपए के गहने, बॉन्ड, फिक्स डिपोजिट व बैंकों में जमा रकम है। उन पर 1.26 लाख रुपए का कर्ज भी है। वह डॉ. राममनोहर लोहिया ट्रस्ट  के सचिव हैं।
प्रो. रामगोपाल यादव 1969 में केके पीजी कॉलेज में फिजिक्स के लेक्च्रर बने। बाद में उन्होंने राजनीतिक विज्ञान विभाग के अध्यक्ष के तौर पर शिक्षण कार्य किया। इसके बाद वह चौधरी चरण सिंह डिग्री कॉलेज के प्राचार्य रहे। कहा जाता है कि कोई बड़ा फैसला लेते समय मुलायम सिंह यादव प्रो. रामगोपाल से सलाह लेते हैं।
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शिवपाल सिंह यादव 
नाम शिवपाल सिंह यादव जन्मतिथि 06 अप्रैल, 1955 शैक्षिक योग्यता बी.ए., बी.पी.एड. पिता स्व. श्री सुघर सिंह यादव माता स्व. श्रीमती मूर्ति देवी पत्नी श्रीमती सरला यादव संतान पुत्र -एक पुत्री -एक ,मुलायम के पांच भाइयों में सबसे छोटे भाई शिवपाल सिंह यादव ने ही सक्रिय राजनीति में प्रवेश किया। ‘‘शिवपाल  बड़े तेज-तर्रार थे। शिवपाल को छोड़कर मुलायम के किसी भाई का राजनीति में जाने का इरादा नहीं किया। शिवपाल दैनिक भास्कर डॉट कॉम से बातचीत में बताते हैं कि 70 के दशक में चंबल के बीहड़ जिले इटावा में राजनीति की राह आसान नहीं थी। 1967 में जसवंतनगर से विधानसभा चुनाव जीतने के बाद मुलायम सिंह के राजनैतिक विरोधियों की संख्या काफी बढ़ चुकी थी। राजनैतिक द्वेष के चलते कई बार विरोधियों ने मुलायम सिंह पर जानलेवा हमला भी कराया। यही वह समय था, जब हम शिवपाल सिंह और चचेरे भाई रामगोपाल यादव मुलायम सिंह के साथ आए। शिवपाल ने मुलायम सिंह की सुरक्षा की ज़िम्मेदारी संभाली।
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शिवपाल ने बताया कि मुलायम सिंह के जीवन पर लिखी अपनी किताब 'लोहिया के लेनिन' में मैंने इसका जिक्र भी किया है, ‘‘नेता जी जब भी इटावा आते, मैं अपने साथियों के साथ खड़ा रहता। हम लोगों को काफी सतर्क रहना पड़ता, कई रातें जागना पड़ता था।’’ मुलायम सिंह के नज़दीकी रिश्तेदारों में रामगोपाल यादव इटावा डिग्री कॉलेज में फिजिक्स पढ़ाते थे। इसीलिए लोग इन्हें ‘प्रोफेसर’ कहने लगे। वे कहते हैं, ‘‘सबसे ज्यादा पढ़े-लिखे होने के कारण रामगोपाल रणनीति बनाने और कागजी लिखा-पढ़ी में मुलायम सिंह की मदद करते थे और मैं नेताजी की सुरक्षा की ज़िम्मेदारी संभालता था।" शिवपाल ने बताया कि 1988 में रामगोपाल और शिवपाल सिंह ने एक साथ राजनीति में कदम रखा। रामगोपाल इटावा के बसरेहर ब्लाक के अध्यक्ष निर्वाचित हुए तो शिवपाल इटावा के जिला सहकारी बैंक के अध्यक्ष चुने गए। इसके बाद 1992 में रामगोपाल राज्यसभा के लिए निर्वाचित हुए तो मैं पहली बार 1996 में जसवंतनगर से जीतकर विधानसभा पंहुचा। इसके बाद रामगोपाल लगातार राज्यसभा पहुंच रहे हैं और मैंने अपनी विधायकी सफलतापूर्वक बरकरार रखी है।
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शिवपाल सिंह यादव ने मुलायम सिंह यादव के सहकारिता मंत्री रहते हुए पहली बार 77-78 में किसानों को एक लाख क्विंटल और अगले वर्ष 2.60 लाख क्विंटल बीज बांटे थे। उनके कार्यकाल में प्रदेश में दूध का उत्पादन तो बढ़ा ही, साथ ही पहली बार सहकारिता में दलितों और पिछड़ों के लिए आरक्षण की भी व्यवस्था की गई। सहकारिता आंदोलन में मुलायम के बढ़े प्रभाव ने ही शिवपाल के लिए राजनीति में प्रवेश का मार्ग खोला।
1988 में शिवपाल पहली बार जिला सहकारी बैंक, इटावा के अध्यक्ष बने। 1991 तक सहकारी बैंक का अध्यक्ष रहने के बाद दोबारा 1993 में शिवपाल ने यह कुर्सी संभाली और अभी तक इस पर बने हुए थे। 1996 से विधानसभा सदस्य के साथ-साथ आज कई शिक्षण संस्थाओं के प्रबंधन भी करते हैं। वे एस एस मेमोरियल पब्लिक स्कूल, सैफई, इटावा के अध्यक्ष चुने गए। चौ. चरण सिंह पी जी कॉलेज, हैवरा, इटावा प्रबंधक, डॉ. राममनोहर लोहिया इंटर कॉलेज, धनुवां, इटावा प्रबंधक, डॉ. राम मनोहर लोहिया इंटर कॉलेज, बसरेहर, इटावा प्रबंधक, जन सहयोगी कन्या इंटर कॉलेज, बसरेहर, इटावा प्रबंधक, डॉ. राममनोहर लोहिया, माध्यमिक हाई स्कूल, गीजा, इटावा प्रबंधक, मनभावती जन सहयोगी इंटर कॉलेज, बसरेहर, इटावा पूर्व पद कैबिनेट मंत्री, कृषि एवं कृषि शिक्षा, कृषि विपणन, पी.डब्ल्यू.डी., ऊर्जा एवं भूतत्व खनिकर्म अध्यक्ष, मंडी परिषद अध्यक्ष, जिला सहकारी बैंक, इटावा निदेशक, पी.सी.एफ. प्रमुख महासचिव, समाजवादी पार्टी अध्यक्ष, जिला पंचायत, इटावा अध्यक्ष, उत्तर प्रदेश सहकारी ग्राम विकास बैंक लिमिटेड, लखनऊ विधानसभा, अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों तथा विमुक्त जातियों संबंधी संयुक्त समिति सदस्य (1997-98) अभिरुचि समाज सेवा एवं राजनीति व्यवसाय कृषि निर्वाचन क्षेत्र 289, जसवंतनगर, जनपद इटावा के साथ-साथ प्रदेश में लोक निर्माण, सिंचाई ,राजस्व ,गन्ना जैसे महत्वपूर्ण विभागों की ज़िम्मेदारी भी है।
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धर्मेंद्र यादव
धर्मेंद्र यादव मुलायम सिंह के बड़े भाई अभय राम के बेटे हैं। वह इस वक्त बदायूं से सांसद हैं और इससे पहले मैनपुरी लोकसभा सीट से चुनाव जीत चुके हैं। तब वह 14वीं लोकसभा के सबसे युवा सांसद थे। धर्मेंद्र यादव का राजनीति से नाता छात्र जीवन के समय से ही है। इलाहाबाद में पढ़ाई के दौरान समाजवादी जनेश्वर मिश्र के सानिध्य में उन्होंने छात्र राजनीति की। इलाहाबाद में सपा का परचम लहराने का श्रेय जनेश्वर मिश्र को जाता है तो उनके सहायक के तौर पर धर्मेंद्र का भी नाम लिया जाता है।
जब धर्मेंद्र एमए की पढ़ाई पूरी करने वाले थे, तभी वर्ष 2003 में मुलायम सिंह यादव ने उन्हें सैफई बुला लिया। तब धर्मेंद्र के चचेरे भाई व सैफई ब्लॉक प्रमुख रणवीर सिंह का हार्ट अटैक से अचानक मौत हो गई थी। उस समय स्थानीय राजनीति को संभालने का दायित्व मुलायम सिंह ने धर्मेंद्र को दिया। सैफई महोत्सव के सचिव वेदव्रत गुप्ता कहते हैं कि उस समय सैफई को संभालने वाला धर्मेंद्र की टक्कर का कोई नहीं था। वह 2003 में सैफई ब्लॉक प्रमुख के पर पर निर्वाचित हुए। तब मुलायम सिंह यादव मैनपुरी लोकसभा सीट से सांसद थे। 
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वर्ष 2004 में मुलायम सिंह ने उत्तर प्रदेश का मुख्ययमंत्री बनने पर यह सीट छोड़ दी। तब धर्मेंद्र यादव उपचुनाव में डेढ़ लाख वोट से जीतकर मैनपुरी से सांसद बने। मैनपुरी से लोकसभा उपचुनाव जीतने वाले धर्मेंद्र यादव महज 25 वर्ष की आयु में सांसद बन गए। तब वह 14वें लोकसभा के सबसे युवा सांसद थे। बाद में वह वर्ष 2009 में दोबारा बदायूं से चुनाव लड़े और जीते। धर्मेंद्र यादव वर्ष 2005-2007 तक यूपी को-ऑपरेटिव बैंक के चेयरमैन रहे। माफिया डॉन डीपी यादव के राजनैतिक कॅरियर पर विराम लगाने का श्रेय भी धर्मेंद्र यादव को जाता है। 
डीपी यादव वर्ष 2012 के विधानसभा चुनाव के वक्त आजम खां के माध्यम से सपा में आने का रास्ता ढूंढ लिया था। इसे लेकर काफी राजनीतिक रस्साकशी हुई। तब समाजवादी पार्टी के युवा सांसद धर्मेन्द्र यादव की जिद के चलते डीपी यादव को पार्टी में एंट्री नहीं मिल सकी। इसकी वजह से कुछ वक्त तक आजम खां नाराज भी रहे थे। विधानसभा चुनाव में धर्मेंद्र यादव की बदौलत बदायूं के मतदाताओं ने सपा के पांच उम्मीदवारों को विधायक बनाया। 
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धर्मेंद्र यादव की आठवीं कक्षा तक की पढ़ाई सैफई में हुई। इसके बाद शिक्षा के लिए वह इलाहाबाद चले गए। यहां छात्र राजनीति की और युवा नेतृत्व को उभारने का मौका दिया। धर्मेंद्र ने एलएलबी और राजनीति विज्ञान से एमए की पढ़ाई की हुई है। धर्मेंद्र का विवाह नीलम यादव से हुआ है। नेशनल इलेक्शन वॉच के मुताबिक धर्मेंद्र यादव के पास 56 लाख रुपए की संपत्ति है, जबकि 98 हजार रुपए का कर्ज है। 
उन्होंने इलाहाबाद यूनिवर्सिटी से राजनीति विज्ञान विषय में एमए किया है। उन्होंने यह डिग्री और मैनपुरी से लोकसभा चुनाव की जीत एक साथ वर्ष 2004 में पाई। अक्टूबर 2012 में धर्मेंद्र यादव ने संयुक्त राष्ट्र महासभा में हिन्दी में संबोधन दिया था। रणवीर सिंह सैफई महोत्सव के अध्य्क्ष धर्मेंद्र यादव हैं।
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अक्षय यादव
मुलायम सिंह के खानदान के सातवें राजनेता अक्षय यादव हैं। वह सपा महासचिव रामगोपाल यादव के बेटे और मुलायम सिंह यादव के भतीजे हैं। अक्षय ने एमबीए किया है और बीज का कारोबार संभाल रहे हैं। पिछले चार साल से फिरोजाबाद में कार्यकर्ताओं के साथ वक्त बिता रहे हैं। 26 वर्षीय अक्षय यादव को समाजवादी पार्टी ने फिरोजाबाद लोकसभा सीट ने सपा ने टिकट दिया है। इस सीट से अक्षय का पुराना नाता है। 
पिछले पांच साल से इस इलाके में वह काम कर रहे हैं। जब अखिलेश यादव ने वर्ष 2009 के लोकसभा चुनाव में फिरोजाबाद और कन्नौकज से चुनाव लड़ा था, उस समय फिरोजाबाद के चुनाव प्रबंधन की कमान अक्षय यादव ने संभाली थी। इसके बाद अखिलेश ने फिरोजाबाद सीट छोड़ दी और उपचुनाव में पत्नी डिंपल यादव को खड़ा किया। अपनी भाभी डिंपल का चुनाव प्रबंधन भी अक्षय ने संभाला था। लेकिन कांग्रेस नेता व सिनेस्टार राज बब्बर ने डिंपल को हरा दिया। बाद में वर्ष 2012 में कन्नौज लोकसभा उपचुनाव में अक्षय ने ही चुनाव प्रबंधन किया।
 
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अक्षय यादव कहते हैं कि वह फिरोजाबाद में डिंपल भाभी की हार का बदला लेंगे। 2009 में उनके पिता ने डिंपल यादव को खड़ा करवाया था, लेकिन अफसोस कि वहां से जीत नहीं मिल सकी। अब पापा का मन है कि इस इलाके को फिर से जीत लिया जाए। इटावा और मैनपुरी से फिरोजाबाद की सीमा लगी हुई है। यदि वह चुनाव जीतते हैं तो अगले लोकसभा में सबसे युवा सांसद होंगे। चूड़ी निर्माण के लिए मशहूर फिरोजाबाद सीट मुलायम सिंह के परिवार की पारंपरिक संसदीय सीट रही है। 
इस बार अक्षय यादव अधिकतर वक्त फिरोजाबाद में बिता रहे हैं। यहां बेहतर स्थिति है। फिरोजाबाद संसदीय क्षेत्र से सीधा मुकाबला कांग्रेस के प्रत्याशी व सिनेस्टार राज बब्बर से है। बसपा अब तक यहां से दो प्रत्याशी बदल चुकी है। बसपाई आरोप लगा रहे हैं कि सपा के दबाव में उनके प्रत्याशियों को प्रताडि़त किया जा रहा है। अक्षय यादव सीधे राष्ट्रीय स्तर की राजनीति में शामिल हो रहे हैं, जबकि इस यादव परिवार के अधिकतर सदस्य स्थानीय राजनीति से उठकर राष्ट्रीय राजनीति में आए हैं।
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अक्षय यादव समाजवादी पार्टी महासचिव प्रो. रामगोपाल यादव के सबसे छोटे बेटे हैं। उनकी शुरुआती पढ़ाई इटावा के सैफई में हुई। बाद में उच्च शिक्षा दिल्ली में पूरी की। उनकी शादी ऋचा यादव से हुई। उनकी एक बेटी भी है। पढ़ाई पूरा होने के बाद करीब तीन साल पहले अक्षय वापस सैफई आ गए। उन्होंने यहां बीज संयंत्र लगाया। बीज का कारोबार अच्छा चल रहा है। अब वह बिजनेस के साथ-साथ राजनीति में भी कदम रख चुके हैं। अक्षय का सबसे बड़ा शौक रायफल शूटिंग है। वह पढ़ाई के दौरान कई बार राष्ट्रीय शूटिंग चैम्पियनशिप में हिस्सा ले चुके हैं।
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अंकुर यादव 
प्रदेश सरकार में कैबिनेट मंत्री शिवपाल सिंह यादव के पुत्र 25 वर्षीय आदित्य यादव उर्फ अंकुर उत्तर प्रदेश प्रादेशिक को-ऑपरेटिव फेडरेशन (यूपीपीसीएफ) के निर्विरोध अध्यक्ष हैं। . सफेद कुर्ता-पाजामा से इतर पैंट, शर्ट, कोट और हाथ में महंगी रोलेक्स घड़ी पहने बीटेक डिग्रीधारी आदित्य समाजवाद के बदलते चेहरे की ओर इशारा कर रहे हैं। राजनीति में सफलता की पहली सीढ़ी चढ़ने के लिए आदित्य ने अपने पिता शिवपाल सिंह यादव के पद-चिन्हों पर चलते हुए सहकारिता का सहारा लिया है। खुद शिवपाल सिंह ने भी इटावा जिले के सहकारी बैंक के अध्यक्ष पद से सियासी पारी की शुरुआत की थी। यूपीपीसीएफ का अध्यक्ष बनने के साथ ही आदित्य का नाम मुलायम सिंह परिवार के उन सदस्यों की सूची में 13वें नंबर पर शुमार हो गया है, जो राजनीति में एंट्री कर चुके हैं। हालांकि, आदित्य तीन वर्षों से राजनीति में सक्रिय हैं और 2010 में वे जसवंतनगर ब्लॉक से इटावा जिला विकास परिषद का चुनाव भी लड़े, पर पहली बार बाजी हार गए।
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सहकारिता के माध्यम से ही सक्रिय राजनीति में प्रवेश किया। इसकी वजह जानने के लिए थोड़ा पृष्ठभूमि में जाना होगा। 1977 में यूपी में रामनरेश यादव के नेतृत्व में जनता पार्टी की सरकार बनी। उस सरकार में मुलायम सिंह यादव को पहली बार सत्ता सुख मिला और वे सहकारिता मंत्री बने। वहीं से प्रदेश में सहकारिता आंदोलन की शुरुआत हुई। मुलायम सिंह ने सहकारिता को नौकरशाही के चंगुल से निकालकर आम जनता से जोड़ा। उसी दौरान यूपी में सहकारी बैंक की ब्याज दर को 14 फीसदी से घटाकर 13 फीसदी और फिर 12 फीसदी कर दिया गया। तब से ये कहना गलत नहीं होगा कि मुलायम परिवार के पास ही सहकारी बैंक के अध्यक्ष पद का दबदबा बना रहा। अंकुर यादव यूपी को-ऑपरेटिव फेडरेशन लिमिटेड (पीसीएफ) के सभापति पद पर बने हुए हैं और उन्हें कैबिनेट मंत्री का दर्जा भी मिला हुआ है। बेहद शांत स्वभाव के हैं अंकुर यादव। 
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अंशुल यादव
राजपाल और प्रेमलता से दो पुत्र हैं। एक हैं 26 साल के अंशुल यादव और दूसरे 19 साल के अभिषेक यादव। अंशुल यादव भी राजनीति का ककहरा सीख रहे हैं। पिछले विधानसभा चुनाव में अंशुल ने जसवंतनगर विधानसभा क्षेत्र के तहत आने वाले ताखा ब्लॉक में अपने चाचा शिवपाल सिंह यादव के चुनाव प्रचार की कमान संभाली। अंशुल यादव इटावा व भरथना विधानसभा क्षेत्र में जोर-आजमाइश में लगे हुए हैं। 
करीब दो साल से आम लोगों के बीच जा कर अंशुल यादव ने बूथ कमेटियों के गठन में प्रभावी भूमिका निभाई है। नोएडा से एमिटी यूनिवर्सिटी से एमबीए पास करने के बाद राजनीति के मैदान में कूदे अंशुल यादव कहते हैं कि पार्टी की ओर से उनको जिस जिम्मेदारी का निर्वहन करने के लिये कहा गया है, उसी के तहत प्रचार का काम करने में लग गए हैं।
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वैसे, उन्‍हें फार्मूला वन रेस देखने का बेहद शौक है। यही कारण है कि भारत में पहली बार जब इस रेस का आयोजन हुआ तो अंशु भी दर्शक दीर्घा में रेस का लुत्‍फ उठाते नजर आए। इसके अलावा, उन्‍हें पढ़ने का भी काफी शौक है। घर में ही लाइब्रेरी बना रखी है।
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तेजप्रताप सिंह
इंग्लैंड की लीड्स यूनिवर्सिटी से मैनेजमेंट साइंस में एमएससी करके लौटे तेजप्रताप सिंह सक्रिय राजनीति में उतरने वाले मुलायम सिंह के परिवार की तीसरी पीढ़ी का प्रतिनिधित्व करते हैं। मुलायम के बड़े भाई रतन सिंह के बेटे रणवीर सिंह के बेटे तेजप्रताप सिंह यादव उर्फ तेजू इस समय सैफई ब्लॉक प्रमुख निर्वाचित हुए हैं। क्षेत्र में समाजवादी पार्टी को मजबूत करने की पूरी जिम्‍मेदारी तेज प्रताप सिंह ने अपने कंधों पर उठा रखी है। परिवार के सदस्‍य इन्‍हें तेजू के नाम से भी पुकारते हैं। 
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सैफई के पहले ब्लॉक प्रमुख और सैफई महोत्सव के संस्थापक स्वर्गीय रणवीर सिंह यादव के बेटे तेजप्रताप यादव ने जसवंतनगर से अपने बाबा शिवपाल सिंह यादव की जीत में अहम योगदान दिया। सैफई से निर्विरोध ब्‍लॉक प्रमुख चुने जाने के बाद तेजप्रताप यादव ने पिछले विधानसभा चुनाव में काफी मेहनत की। क्षेत्र के लोग कहते हैं कि तेजप्रताप से पहले उनके पिता रणवीर सिंह यादव चुनाव की जिम्मेदारी निभाते थे। सैफई क्षेत्र की जनता को उन्‍हें बेहद प्‍यार मिलता था। लोग उन्‍हें दद्दू कहते थे। 
उनकी लोकप्रियता कुछ ऐसी थी कि रणवीर सिंह जिस गांव-गली मे चुनावी जनसंपर्क के लिए जाते, वहां की जनता में उन्‍हें सम्‍मानित करने होड़-सी लग जाती थी। जब तक रणवीर सिंह जीवित रहे, शिवपाल सिंह भी निश्चिंत रहते थे। रणवीर के निधन के बाद यह जिम्मेदारी धर्मेन्द्र यादव के कंधों पर आ गई और उन्हें सैफई का ब्लॉक प्रमुख बनाया गया। उन्होंने भी अपनी जिम्मेदारी बखूबी निभाई। लेकिन बाद में वह मैनपुरी संसदीय क्षेत्र से सांसद हो गए। इसके बाद परिवार के लिए हमेशा से नाक का सवाल माने जाने वाले सैफई ब्‍लॉक पर तेजप्रताप यादव तेजू को खड़ा किया गया और वे यहां से निर्विरोध चुने गए। 
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बताते हैं कि तेजप्रताप यादव ने अपने बाबा शिवपाल यादव को चुनाव जिताने के लिए सैकड़ों गांवों में पैदल यात्रा की। क्षेत्र की जनता उनमें रणवीर का ही अक्‍स देखती है। उनके सरल और मृदुभाषी स्वभाव के चलते ही क्षेत्र में सैकड़ों लोगों बसपा छोड़कर सपा ज्‍वाइन की। पिता की तरह खादी का कुर्ता-पाजामा और सदरी पहने तेजप्रताप भी बड़े-बूढों, माताओं का आशीर्वाद लेना नहीं भूलते।
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प्रेमलता यादव
मुलायम सिंह के छोटे भाई राजपाल यादव की पत्‍नी प्रेमलता यादव इस समय इटावा में जिला पंचायत अध्‍यक्ष हैं। आमतौर पर गृहिणी के तौर पर जीवन के अधिकतर वर्ष गुजारने के बाद 2005 में प्रेमलता यादव ने राजनीति में कदम रखा। यहां उन्‍होंने पहली बार इटावा की जिला पंचायत अध्‍यक्ष का चुनाव लड़ा और जीत गईं। 2005 में राजनीति में आने के बाद ही प्रेमलता मुलायम परिवार की पहली महिला बन गईं, जिन्‍होंने राजनीति में कदम रखा। उनके बाद शिवपाल यादव की पत्‍नी और मुलायम की बहू डिंपल यादव का नाम आता है। 
प्रेमलता के पति राजपाल यादव इटावा वेयर हाउस में नौकरी करते थे और अब रिटायर हो चुके हैं। रिटायरमेंट के बाद से ही वह समाजवादी पार्टी में अहम भूमिका अदा कर रहे हैं। 2005 में चुनाव जीतने के बाद प्रेमलता ने अपना कार्यकाल बखूबी पूरा किया। इसके बाद 2010 में भी वह दोबारा इसी पद पर निर्विरोध चुनी गई हैं। वैसे, उनके निर्विरोध चुने जाने के दौरान उनके बेटे अंशुल यादव पर एक बसपा नेता पर मारपीट का आरोप भी लगा।
दरअसल, प्रेमलता यादव के खिलाफ चुनाव में खड़ी एक अन्‍य प्रत्‍याशी जब अपना नामांकन वापस लेने पहुंची, तो उसी दौरान एक बसपा नेता से उसकी बातचीत होने लगी। इसके बाद नेता ने आरोप लगाया कि अंशुल यादव ने अन्‍य साथियों के साथ मिलकर उनके साथ मारपीट की और उनके कपड़े फाड़ दिए।
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सरला यादव 
शिवपाल की पत्नी सरला यादव परिवार की पहली महिला सदस्य हैं, जिन्होंने राजनीति में कदम रखा है। शिवपाल बताते हैं कि उस समय कुछ मज़बूरी ही ऐसी थी कि पत्नी को राजनीति में उतारना पड़ा। हलांकि, वो सक्रिय राजनीति का हिस्सा कभी नहीं बनीं और घर की देख-भाल में ज्यादा समय बिताती थीं। यही कारण है कि अखिलेश के साथ-साथ दोनों बच्चों की भी ज़िम्मेदारी उसी पर थी। मैं राजनीति करने लगा था और नेताजी का कामकाज भी संभालना मेरे लिए चुनौती थी। सरला को दो बार जिला सहकारी बैंक का राज्य प्रतिनिधि बनाया गया। 2007 के बाद लगातार दूसरी बार चुनी गई थी और अब कमान बेटे के हाथ में है।

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अरविंद यादव
वैसे परिवार की बात करें तो मुलायम सिर्फ अपने ही परिवार नहीं, चचेरे भाई प्रोफेसर रामगोपाल यादव के परिवार को भी पूरा संरक्षण देते रहते हैं। इसी क्रम में मुलायम की चचेरी बहन और रामगोपाल यादव की सगी बहन 72 वर्षीया गीता देवी के बेटे अरविंद यादव ने 2006 में सक्रिय राजनीति में कदम रखा और मैनपुरी के करहल ब्लॉक में ब्लॉक प्रमुख के पद पर निर्वाचित हुए। अरविंद क्षेत्र की जनता में काफी पहचान रखते हैं। करहल में अरविंद ने समाजवादी पार्टी को काफी मजबूती दिलाई है। लेकिन  2011 के चुनाव में वह आजमाइश के लिए मैदान में नहीं उतर सके। कारण ये था कि इस चुनाव में करहल ब्लॉक प्रमुख की सीट सुरक्षित हो  चुकी थी। लेकिन अरविंद ने हार नहीं मानी है और इस समय वे मैनपुरी लोकसभा सीट के तहत आने वाले करहल ब्लॉक में सपा की मजबूती के लिए काम कर रहे हैं।