दोहरी विचारधारा ही मनुवाद को पोषित कर रही है ? मानवाद के खात्मे के लिए ही बाबा साहब ने मनुस्मृति को जलाया और हिन्दू धर्म का त्याग किये अब यदि आप बाबा साहब को मानते हैं तो इन बाबाओं में क्या रखा है ? अगर इतनी छोटी सी बात बहुजन नेताओं को समझ नहीं आ रही है तो वह संविधान की रक्षा कैसे करेंगे ? इस मामले में राहुल जी की लाइन साफ़ है !
-डॉ लाल रत्नाकर
अखिलेश यादव को दोहरी वैचारिकी त्यागनी होगी अन्यथा वह पाखण्ड अन्धविश्वास और चमत्कार की राजनीती को हरा नहीं पाएंगे ?
"एक तरफ़ अखिलेश यादव समता, सामाजिक न्याय और पिछड़ों, दलितों, आदिवासियों व अल्पसंख्यकों (PDA) की बात करते हैं, वहीं दूसरी ओर अखिलेश यादव मनुस्मृति के कट्टर समर्थक, ब्राह्मणवाद के प्रचारक, और संविधान विरोधी मानसिकता के वाहक शंकराचार्य अविमुक्तेश्वरानंद के चरणों में गिरा हुआ देखकर अफ़सोस होता है!
अविमुक्तेश्वरानंद का साफ़ बयान है "जो मनुस्मृति नहीं मानता, वो हिन्दू नहीं" यानी जो संविधान को मानता है, समता-समानता चाहता है, वह इनके लिए हिन्दू ही नहीं है!"
अखिलेश यादव, जो खुद कहते हैं कि "मनु बाबा ने वर्ण अव्यवस्था फैलाई, उसी मनु बाबा के भक्त के चरणों में पहुँच जाते हैं?"
यह वैचारिक हीनता, दोगलापन ही है यह दलितों, पिछड़ों, आदिवासियों व अल्पसंख्यकों के साथ संविधान में विश्वावास रखने वालों के साथ विश्वासघात नहीं तो और क्या है? PDA की बात करने वाले अखिलेश यादव आखिर किसके साथ खड़े हैं?"
साभार : बसावन इंडिया फेसबुक पेज
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संभवतः यह चित्र जग्गंनाथ पूरी का है ! |
‘पाबंदी’ अंत की ओर बढ़ती ‘भयभीत सत्ता’ की निशानी होती है।
लोकप्रिय यूट्यूब चैनल बंद करने या किसी लोकगायिका पर एफ़आइआर के पीछे असली वजह दर्शकों के बीच नकारे जा चुके, उन बड़े न्यूज़ चैनलों को बचाने की है, जिनका सत्ता से वो नालबद्ध संबंध है, जिसका आर्थिक सिद्धांत है : ‘जिसका दाना, उसका गाना’। इन जुमलाई चैनलों का झूठ अब सिर्फ़ वही देख रहा है, जो आज तक ये नहीं समझ पाया है कि उसकी भावनाओं का शोषण करके उसे लगातार मूर्ख बनाया जा रहा है और बनाए रखा भी जा रहा है। ये मूर्खता की डेली डोज़ परोसनेवाले तथाकथित बड़े न्यूज़ चैनल हैं। सत्ता की असली चिंता ये है कि ऐसे ‘माउथऑरगन’ चैनल चले गये तो सत्ताधारी अपने लगातार घटते समर्थकों को कैसे बचाएंगे अपना नफ़रती एजेंडा कैसे चलाएंगे, उनकी हर गलत बात को सही साबित करनेवाले ‘मूढ़ लोग’ कहाँ से लाएंगे।
ये वो तथाकथित बड़े न्यूज़ चैनल्स हैं, जो दो लोगों के बीच ‘आग जलाकर’ शांतिपूर्ण वार्ता करते हैं। ऐसे कर्तव्यच्युत चैनल उन परंपरागत बदज़ुबान लोगों को भी बुलाते हैं जिनको मुक्त रूप से अपशब्द कहने की छूट है और जिनके दुष्कथन कहते समय उनके प्रोग्राम के संचालक सुनने, समझने व देखने की शक्ति कुछ समय के लिए खो देते हैं। जिस जहाज के खेवनहार ऐसे ‘इंद्रियों से हीन’ असंवेदनशील लोग होंगे, उनको डूबने से कोई नहीं बचा सकता। इनके मालिक लोग जब अपने कर्म और कर्तव्य के सगे नहीं हैं तो वो ऐसे संचालकों को क्या बचाएंगे जिनका वजन ‘पत्रकारिता-धर्म निभाने की तराज़ू’ पर शून्य से भी नीचे है।
ऐसी पाबंदियों से सबसे अच्छी बात ये हुई है कि आम जनता के सामने डरी हुई भाजपा के चेहरे का खुलासा हो गया है। भाजपा जिस झूठ के सहारे खड़ी थी, सत्ता के लाउडस्पीकर बने उन डूबते चैनलों में भगदड़ मची है, कोई इधर से उधर जा रहा है, कोई उधर से इधर आ रहा है, आपस में पाले बदले जा रहे हैं लेकिन इन सत्ता समर्थित न्यूज़ चैनलों को दर्शक नहीं मिल पा रहे हैं। कोई अपने कर्मचारियों को परफ़ॉर्मेंस सुधारने का नोटिस थमा रहा है लेकिन इनसे कुछ होनेवाला नहीं क्योंकि इनके समाचारों में उस सत्य के सिवा बाक़ी सब कुछ है, जो जनता के विश्वास की नींव होता है, और जो जनता को दर्शक में बदलता है। रंग-बिरंगे बचकाने ग्राफ़िक्स; सड़क की झांकियों जैसे हास्यास्पद सेट; तुकबंदी को आत्महत्या के लिए मजबूर करते भड़काऊ और बचकाने शीर्षक और हेड लाइन्स; असंगत-संगीत का दुरुपयोग भी इनके ‘टीआरपी के दिवालियापन’ का इलाज नहीं हो सकता है। ये आत्ममुग्ध, रीढ़हीन चैनल्स आख़िरी स्टेज में हैं।
कुल मिलाकर लोकप्रिय यूट्यूब चैनलों को बंद करना या एफ़आइआर कराना, नैतिक और भौतिक रूप से मरणासन्न ‘गूँगी मीडिया’ को बचाने का निरर्थक प्रयास है। सत्ता का ये प्रयास निरर्थक इसलिए है क्योंकि जनता का पक्ष रखनेवाले, सच में जागरण लानेवाले इन स्वत: पोषित लोकप्रिय छोटे यूट्यूब चैनलों के दर्शक मानसिक रूप से सजग और सचेत हैं, ये कभी भी ‘जुमलाई टीवी चैनलों’ के दर्शक नहीं बनेंगे। दूसरी तरफ़ जब हर हाथ में मोबाइल है तो €सिटिज़न जर्नलिज्म’ के इस अति सक्रिय दौर में क्या सत्ता करोड़ों लोगों पर पाबंदी लगा सकती है। आक्रोशित जनता का सामना तो एक न एक दिन सत्ताधारियों को करना ही पड़ेगा।
ये सच्ची आवाज़ों को बुलंद करने का समय है। सच्चा इतिहास गवाह है कि क्रांतिकारी क़लम और चैतन्य कलाकारों की एकता ने इतिहास को नकारात्मक होने से बचाया है। आइए एकजुट हो जाएं अभिव्यक्ति के साथ-साथ देश की आज़ादी, लोकतंत्र और उस संविधान को भी बचाएं, जो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता देता है। इसीलिए सभी सच्चे यूट्यूब न्यूज़ व क्रिएटिव चैनलों से खुली अपील है कि वो ऐसी कार्रवाइयों से डरें नहीं और एकजुट होकर इसकी आलोचना करें क्योंकि कोई ‘आज़ाद -ख़याल इंक़लाबी’ ये लिखने की प्रेरणा देकर गया है कि “लगेगी पाबंदी तो आएंगे कई और सच्चे चैनल्स भी इसकी ज़द में, यहाँ कोई अकेला चैनल थोड़ी है।”
-Akhilesh Yadav : Favourites · 30 April at 11:17 ·साभार : फेसबुक पेज
इनके लिए कभी हमने लिखा था जिसकी आज भी प्रासांगिकता तो दिखती है जिसमें वह यादव समाज को राजनितिक संन्यास दे दिए हैं, जिसका दुष्परिणाम का अहसास शायद उन्हें अब भी नहीं है ऐसा ही प्रतीत हो रहा है। इसकी वजह जो भी हो लेकिन इतना तो तय है की राजनीती और परिवार संभालने में बहुत फर्क होता है जो इस समय साफ़ साफ़ दिख रहा है। समाजवादी सोच और समाजवादी संस्कृति का घालमेल मनुवादी तौर पर ही किया जा सकता है जो इनके साथ निरन्तर जारी है।
सबसे बड़ी कमी कहें या नासमझी जो इनके चरित्र में दिख रही है वह यह की यहाँ जुबानी जमा खर्च तो दिखता है पर वैचारिक कत्तई नहीं। जब तक बहुजनवादी विचारधारा का विश्वसनीय संचार नहीं होगा तब तक यह या इनके जैसे मनुवादी वैचारिकी के साथ लोकतंत्र में परिवारवादी एवं संविधानवादी समान सोच के राजनेताओं का उत्थान संभव नहीं होगा ऐसा प्रतीत होता है। सही कहा गया हैं ! राजतंत्र में विरासत सत्ता का आधार होती है, जबकि लोकतंत्र में वैचारिक स्वतंत्रता और विचारधारा समाज को आगे ले जाती है। जहां विचारों का सम्मान होता है, वहां भय नहीं, बल्कि प्रगति का माहौल बनता है।
जबकि संवैधानिक लोकतंत्र में : वैचारिक स्वतंत्रता और विचारधारा दो महत्वपूर्ण अवधारणाएँ हैं जो एक-दूसरे से जुड़ी हुई हैं, लेकिन इनके बीच कुछ अंतर भी हैं। नीचे इनका संक्षिप्त और स्पष्ट विश्लेषण दिया गया है:
1. वैचारिक स्वतंत्रता (Freedom of Thought)
-परिभाषा : वैचारिक स्वतंत्रता का तात्पर्य है कि प्रत्येक व्यक्ति को अपने विचार, विश्वास और मत रखने, व्यक्त करने और उनकी खोज करने की स्वतंत्रता हो। यह संवैधानिक लोकतंत्र का मूलभूत सिद्धांत है।
-संवैधानिक आधार : भारतीय संविधान में अनुच्छेद 19(1)(a) अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को सुनिश्चित करता है, जिसमें वैचारिक स्वतंत्रता भी निहित है।
अनुच्छेद 25 धार्मिक विश्वास और प्रचार की स्वतंत्रता प्रदान करता है।
- महत्व :
- यह व्यक्तिगत स्वायत्तता और गरिमा को बढ़ावा देता है।
- लोकतंत्र में बहस, संवाद और विविधता को प्रोत्साहित करता है।
- नागरिकों को सरकार की आलोचना करने और सुधार के लिए सुझाव देने का अधिकार देता है।
- सीमाएँ : वैचारिक स्वतंत्रता पूर्ण नहीं है। इसे सार्वजनिक व्यवस्था, नैतिकता, देश की अखंडता और अन्य के हित में उचित प्रतिबंधों के अधीन रखा जा सकता है (अनुच्छेद 19(2))।
2. विचारधारा (Ideology)
- परिभाषा : विचारधारा एक ऐसी व्यवस्थित विचार-प्रणाली है जो सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक या सांस्कृतिक मूल्यों और विश्वासों को दर्शाती है। उदाहरण: समाजवाद, पूँजीवाद, साम्यवाद, उदारवाद आदि।
लोकतंत्र में भूमिका :
- विचारधाराएँ राजनीतिक दलों, सामाजिक आंदोलनों और व्यक्तियों के दृष्टिकोण को आकार देती हैं।
- ये नीति-निर्माण, शासन और सामाजिक परिवर्तन के लिए दिशा प्रदान करती हैं।
- संवैधानिक लोकतंत्र में विभिन्न विचारधाराओं को सह-अस्तित्व का अधिकार होता है, बशर्ते वे संविधान के मूल ढांचे का उल्लंघन न करें।
चुनौतियाँ : विचारधारा कभी-कभी वैचारिक स्वतंत्रता को सीमित कर सकती है, जब लोग या समूह अपनी विचारधारा को दूसरों पर थोपने का प्रयास करते हैं।
वैचारिक स्वतंत्रता और विचारधारा का संबंध
वैचारिक स्वतंत्रता विभिन्न विचारधाराओं के विकास और अभिव्यक्ति की आधारशिला है। यह सुनिश्चित करता है कि कोई भी व्यक्ति या समूह अपनी विचारधारा को स्वतंत्र रूप से विकसित और प्रचारित कर सके।
- एक संवैधानिक लोकतंत्र में, विचारधाराओं को संविधान के दायरे में रहकर कार्य करना होता है। उदाहरण के लिए, भारत में कोई भी विचारधारा जो धर्मनिरपेक्षता, समानता या मौलिक अधिकारों का विरोध करती है, उसे असंवैधानिक माना जा सकता है।
- वैचारिक स्वतंत्रता विचारधाराओं के बीच संवाद और स्वस्थ प्रतिस्पर्धा को बढ़ावा देती है, जो लोकतंत्र को मजबूत करती है।
चुनौतियाँ :
असहिष्णुता : कुछ विचारधाराएँ असहिष्णु हो सकती हैं, जिससे वैचारिक स्वतंत्रता पर खतरा उत्पन्न होता है।
दुष्प्रचार : सोशल मीडिया और अन्य मंचों पर वैचारिक स्वतंत्रता का दुरुपयोग दुष्प्रचार या घृणा फैलाने के लिए हो सकता है।
सरकारी हस्तक्षेप : कुछ मामलों में, सरकारें वैचारिक स्वतंत्रता को दबाने के लिए कानूनों का दुरुपयोग कर सकती हैं।
निष्कर्ष : संवैधानिक लोकतंत्र में वैचारिक स्वतंत्रता नागरिकों को अपनी विचारधारा विकसित करने और व्यक्त करने का अधिकार देती है, जबकि संविधान विभिन्न विचारधाराओं को संतुलित और नियंत्रित करने का ढांचा प्रदान करता है। यह सुनिश्चित करता है कि स्वतंत्रता और जिम्मेदारी के बीच संतुलन बना रहे, जिससे समाज में विविधता, समावेशिता और प्रगति को बढ़ावा मिले।
जो हमें करना था यह उन्होंने कर दिखाया !
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"समाजवादी पार्टी का विभाजन तो उसी दिन हो गया था जिस दिन अखिलेश यादव ने नेताजी से सब कुछ ले लिया था और नेताजी ने उस दिन समाजवादी पार्टी को समाप्त कर दिया था जिस दिन उन्होंने अपने पुत्र को प्रदेश का मुख्यमंत्री बना दिया था !
यद्यपि मैं भी इस बात का पक्षधर था कि अब अखिलेश यादव को मुख्यमंत्री का पद दे देना चाहिए और जब यह हुआ हमें भी इस बात की प्रसन्नता हुई कि मेरी भी बात मानी गई है। तब तक मैं अखिलेश यादव के बारे में उतना नहीं जानता था जितना कि उनसे अपेक्षा करता था, समय-समय पर जो बातें आती रहीं उनसे लगता था कि युवा हैं सीख रहे हैं और नेता जी का संरक्षण है बहुत कुछ सीख जाएंगे।
लेकिन जब यह लगने लगा की यह सीख नहीं रहे हैं और लोग इनका दुरुपयोग कर रहे हैं, इसलिए कि या तो यह कुछ जानते नहीं या यह बहुत कुछ जानबूझकर करने दे रहे हैं अक्सर आता था कि वह अकेले मुख्यमंत्री नहीं हैं बल्कि प्रदेश में साढे़ तीन मुख्यमंत्री हैं। आधा मुख्यमंत्री कौन है इस बारे में जो जानकारी हुई उसमें ही इन्हें रखा जाता था।
अब सवाल यह है कि सैफई परिवार का युवराज अपने घर से ही मात खाना शुरु कर दिया है उसके सबसे शक्तिशाली चाचा ने अपनी एक पार्टी बना ली है और ऐसा कहा जा रहा है कि माननीय नेता जी उसी की तरफ हैं, सैफई घर संभालेगा या प्रदेश देश की तो छोड़िए उसके लायक तो इन्होंने बनने का प्रयास ही नहीं किया।
आजकल बहुत सारे लोग हो सकता है पूर्व मुख्यमंत्री जी को क्या राय दे रहे हो की आरक्षण की वजह से आपका नुकसान हुआ है और पिछड़ी जातियों के लोग आपसे अलग हो गए हैं तो उन्होंने कहना शुरू किया है कि साउथ में तो 70 परसेंट आरक्षण है यहां क्यों नहीं हो सकता गजब के नेता हैं कैसे मुख्यमंत्री रहे हैं पूर्व मुख्यमंत्री होने के नाते यह दिल से यह पूछा जाए क्या यह बात आपको नहीं पता थी तब जब आप मुख्यमंत्री थे और धड़ाधड़ आरक्षण के खिलाफ फरमान जारी कर रहे थे।
जिन लोगों को लगता है कि यह भविष्य के सामाजिक न्याय मांगने वालों के नेता बनने की कुवत रखते हैं, उनसे मैं जानना चाहूंगा कि क्या विरोध में रहकर कि यह बात कही जा सकती है और जवाब सत्ता में होते हैं तो आपको यह याद ही नहीं रहता कि आपकी से लड़ाई को और किसके इशारे पर खत्म कर रहे हैं।
यह कितनी अजीब बात है कि आरक्षण के नाम पर इनकी सत्ता चली गई और सत्ताधारियों ने इन्हें आरक्षण से गुमराह किया और उनको उमराह किए हुए लोगों के साथ इन्होंने वह काम किए जो उनके मन के अंदर निरंतर मंडल कमीशन के आने के साथ ही चलना शुरू हो गया था।
इनकेआचरण को तो इतिहास भी माफ नहीं करेगा क्योंकि सामाजिक न्याय की जिस इतिहास की सीढ़ी पर चढ़ कर यह आए थे उन्होंने उसी को उठाकर सामाजिक न्याय के विरोधियों को दे दिया किसने कहा था इनको कि आप सवर्णों की राजनीति करिए, क्या वास्तव में देश में स्वर्ण राजनीतिज्ञों की कमी हो गई थी जो उन्होंने यह दाईत्व संभाला ।
प्रोफ़ेसर ईश्वरी प्रसाद का मानना है कि भारतीय राजनीति परिवारवाद के सिवा कोई राजनीतिक समझ या विचारधारा को लेकर के आगे नहीं बढ़ रहा है बल्कि वह नकली लोकतंत्र का नाटक कर रहा है।
यह बात तो जायज है कि जिन लोगों के जिम्मे सामाजिक न्याय के आंदोलन का दायित्व आया या मिला वह सब असामाजिक न्याय के आंदोलन के विरोधी निकले, जिनमें सामाजिक न्याय की समझ है उनका जनाधार नहीं है या वे जनता से दूर हैं। यह भी उनके साथ खड़े हैं जो उन्हें निरंतर धोखा देते रहते हैं और यही कारण है कि देश की 85% की आबादी वाली जमाते उनसे रीरिया रहा हैं जो मात्र 15 % से परास्त हो गई हैं । यह लोभी लालची और सीबीआई से डरे हुए लोग हैं जो संघर्ष नहीं कर सकते और संघर्ष करने वाले को कमजोर करने का काम करते हैं।
राजनीति करने के अपने तरीके बन गए नए तरीकों के अनुसार नई पार्टियां बना ली जा रही है अभी नई पार्टियों का योगदान बनाने वाले के लिए है जनता के लिए है यह विचारणीय सवाल है."
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